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[ श्राचाराङ्ग-सूत्रम्
जाता है। ऐसा साधक सब कुछ देखता है, सब कुछ जानता है लेकिन वह आकर्षण — मोह के वश में नहीं होता । वह केवल दृष्टा होता है। जो तत्त्व मोहित करता है वह (वासना) उसमें नहीं होता। श्रतएव उसकी प्रत्येक क्रिया सहज होती है इसलिए स्वाभाविक दशा में कर्म का बन्धन नहीं हो सकता। इसलिए उस साधक को कम कहा गया है ।
श्रावागमन के चक्र को जानकर वह साधक परमार्थ का चिन्तन करता है और आकांक्षाओं से दूर रहता है । वह सब कुछ देखता है, जानता है लेकिन वह इच्छा नहीं करता है। अकर्मा हो जाने पर केवलज्ञान और केवलदर्शन उत्पन्न हो जाते हैं और वे समस्त संसार के पूज्य हो जाते हैं । देवाधिपति इन्द्र उनके चरणों की उपासना करने में अपना अहोभाग्य मानता है । सम्राट्, चक्रवर्ती, नर, अमर आदि द्वारा वह पूजनीय हो जाता है तदपि वह परमार्थ- ज्ञाता उस पूजा को भी औपाधिक मानता है। वह उस अवस्था में भी निरपेक्ष रहता है। उसे पूजा की भी कामना नहीं रहती । वह संसार के स्वरूप को जानकर, विषयों से सर्वथा निरपेक्ष होकर जन्म-मरण के मार्ग को पार कर लेता है। वह मोक्ष में विराजमान हो जाता है और श्रात्म स्वरूप को पा जाता है। शरीर उसके श्रात्मविकास का साधनमात्र होता है। जब विकास की पराकाष्ठा हो जाती है तो शरीर कृतकृत्य होकर आत्मा से पृथक् हो जाता है। यह स्वाभाविक ही है। इस तरह शरीर और कर्म से मुक्त होकर आत्मा सिद्ध, बुद्ध और शुद्ध बन जाती है।
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सव्वे सरा नियट्टंति, तक्का जत्थ न विज्जइ, मई तत्थ न गाहिया, घोए, पट्टाएस्स खेयन्ने, से न दीहे न हस्से न वट्टे न तंसे न चउरंसे, न परिमंडले, न कि रहे न नीले न लोहिए न हालिदे न सुकिल्ले, न सुरभिगंधे, न दुरभिगंधे, न तित्ते न कहुए, न कसाए, न अंबिले, न महुरे, न कक्खडे, न मउए, न गुरूए, न लहुए, न सीए न उरहे, न निद्धे, न लुक्खे, न काऊ, न रुहे, न संगे, न इत्थी न पुरिसे, न अन्नहा, परिन्ने सन्ने, उवमा न विज्जए अरूवी सत्ता अपयस्स पयं नत्थि । से न सद्दे, न रूवे, न गंधे, न रसे, फासे इचैव त्ति बेमि ।
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न
संस्कृतच्छाया - सर्वे स्वराः निवर्तन्ते, तर्कों यत्र न विद्यते, मतिस्तत्र न ग्राहिका, भोजः, अप्रतिष्ठानस्य खेदज्ञः, स न दीर्घो न ह्रस्वो, न वृत्तो, न त्र्यत्रो, न चतुरस्रो, न परिमण्डलो, न कृष्णो, न नीलो, न लोहितो, न हारिद्रो, न शक्लो, न सुरभिगन्धो, न दुरभिगन्धो, न तिक्को, न कटुको, न कषायो, नाम्लो न मधुरः, न कर्कश, न मृदुः, न लघुः, न गुरुः, न शीतो, नोष्णो, न स्निग्धो, न रूक्षो, न कायवान्, न रुहः, न संगः, न स्त्री, न पुरुषः, नान्यथा, परिज्ञः, संज्ञः, उपमा न विद्यते, अरूपिणी सत्ता, अपदस्य पदं नास्ति । स न शब्दः, न रूपः, न गन्धः, न रसः, न स्पर्शः इत्येतावन्तः इति बवीमि ।
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