Book Title: Acharanga Sutram
Author(s): Saubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
Publisher: Jain Sahitya Samiti

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Page 422
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org पचम अध्ययन चतुर्थोद्देशक ] [ ३६१ दोनों से व्यक्त हैं इस कारण वे सकारण एक चर्या कर सकते हैं। जो प्रतिमाधारी साधु हैं या जो अभिग्रहधारी है और उद्यतविहारी हैं वे सकारण एक-चर्या कर सकते हैं लेकिन बिना कारण उन्हें भी एकचर्या करनी नहीं कल्पती है । अत्र एक चर्या से होने वाले कतिपय दोषों का उद्भावन करते हैं: Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir एक-चर्या करने वाला साधक संयम, आत्मा और प्रवचन की हीलना करता है। वह यथोचित रीति से समितियों का पालन नहीं कर सकता है। एकाकी विचरने वाला साधु यदि व्याधि से ग्रस्त हो जाय तो उसकी परिचर्या करने वाला कोई न होने से उसकी कैसी दशा होगी यह समझा जा सकता है । यदि पर-वश बना हुआ साधु गृहस्थों द्वारा सेवा या उपचार करवाता है तो वे गृहस्थ छःकाय के जीवों का उपमर्दन करके अनुपयोग से कार्य करने वाले होने से साधु को संयम में अनेक दोष लगते हैं। इससे संयम की हानि होती है । अगर साधु गृहस्थों से सेवा न करावे तो अन्य सहधर्मियों के अभाव से उसकी परिचर्या न हो सकेगी इस तरह आत्मविराधना का प्रसंग आता है । कदाचित् अतिसारादि व्याधियों के होने पर मल-मूत्रादि से वस्त्र या शरीर के भरे होने से प्रवचन की हीलना हो सकती है। जो गच्छ में रहते है उनको ये दोष नहीं लगते हैं। जो गच्छनिर्गत हैं उनके दोष इन गाथाओं में बताये गये हैं: साहम्मिएहिं सम्मुज्जएहिं एगागिश्रो जो विहरे । श्रयं परयाए छक्कायवहमि आवडइ ॥ गागस्स दोसा इत्थी साणे तहेव पडिणीए । भिक्खऽविसोहि महव्वय तम्हा सबिइज्जए गमणं ॥ अर्थात् — अपने समुद्यत सहधर्मियों के होते हुए भी जो एकाकी विहार करता है वह शरीर में रोगादि उत्पन्न होने पर षट्काय के जीवों के वध में भागी होता है। अकेले विचरने वाले को स्त्री, श्वान एवं अन्य विरोधियों से अनेक प्रकार के दुख उत्पन्न हो सकते हैं । उन्हें एषणा सम्बन्धी दोष लगते हैं और महाव्रतों में भी भंग पड़ने का संभावना रहती है अतएव अपने सहधर्मियों के साथ विचरना चाहिए । गच्छ में रहकर विचरने वाला समर्थ साधु अपने साथ अनेक साधुओं को उन्नत बना सकता है, अनेक शिथिल बने हुए को तार सकता है इस तरह वह स्व-पर तारक हो सकता है। अतएव गच्छ में रहकर संयम की निर्मल श्राराधना करनी चाहिए। यह प्रश्न हो सकता है कि गच्छान्तवर्त्ती साधु को सभी तरह के सहायक मिलते हैं तो कौन सहधर्मियों को छोड़कर एकाकी विहार करना पसन्द करेगा ? जब कोई एकाकी बिहार नहीं कर सकता है तो उसका प्रतिषेध क्यों किया जाय ? किसी चीज़ की सम्भावना हो तोही प्रतिषेध करना योग्य है ? इसका उत्तर यह है कि कर्मपरिणति के कारण दुनिया में कुछ भी अशक्य. नहीं है। कई मूर्ख ऐसे भी हैं जो - स्वच्छन्दता रूपी रोग के लिए औषधि तुल्य, दुखरूपी प्रवाह में डूबते हु के लिए सेतु-तुल्य और समस्त कल्याणों के आधाररूप गच्छ में रहते हुए प्रमाद से भूल करने पर आचार्यादि द्वारा अनुशासन करने पर गच्छ को छोड़कर अलग हो जाते हैं। वे गुरु के हितोपदेश पर ध्यान न देकर, सद्धर्म का विचार न करके, कपाय के दुष्परिणाम से आँख मींचकर, कुत्तमर्यादा को लांघ कर, भावी अनर्थों की गणना करके, क्रोध से स्वच्छन्दाचारी बनकर गच्छ से निकल जाते हैं । वे इस लोक और परलोक में दुख परम्परा को प्राप्त करते हैं। कहा है: जह सायरम्मि मीणा संखोहं सारस असहंता । गिति तो सुहकामी णिग्गयमित्ता विणस्संति ॥ For Private And Personal

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