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द्वितीय अध्ययन चतुर्थोद्देशक ]
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नहीं जानते। जिस देश और जिस जाति में स्त्रियों का सन्मान नहीं है, जहाँ स्त्रियाँ उपेक्षादृष्टि से देखी जाती हैं वह देश और जाति कभी उन्नत नहीं हो सकती। इसके विपरीत जहाँ स्त्री - जाति की प्रतिष्ठा है, के प्रति आदर है वह समाज, जाति और देश समुन्नत होता है। भारतीय प्राचीन ऋषिमुनियों ने इसीलिए यह फरमाया है कि:
यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता ।
जहाँ स्त्रियों की प्रतिष्ठा है वहाँ देवों का वास है ।
जैन धर्म ने, अन्यान्य धर्मों की तरह स्त्रियों को उनके अधिकारों से वंचित नहीं रक्खा है । "स्त्री शूद्रौ नाधीयेताम् " का पक्षपात पूर्ण बन्धन जैनधर्म में नहीं है। जैनधर्म तो पुरुषों के समान ही स्त्रियों को मुक्ति का अधिकार देता है। जो लोग स्त्रियों को अपने विषभरे दृष्टिकोण से भोगोपभोग के साधन रूप में देखते हैं वे निरे स्वार्थी और अज्ञानी हैं। उनकी यह भ्रमपूर्ण मान्यता उनके लिए दुख का कारण बनती है । इस अज्ञान के द्वारा वे शारीरिक और मानसिक दुखों का वेदन करने के लिए लाचार होते हैं क्योंकि जहाँ आसक्ति है वहाँ दुख नियमतः होता ही हैं। उन अज्ञानियों का इस प्रकार कहना मोह का ..परिणाम है। मोह में पड़कर ही वे इस प्रकार की मिथ्या प्ररूपणा करते हैं । मोह से मोह होता है । अतएव उनके इस कथन का परिणाम यह होता है कि वे मोहनीय कर्म का बन्धन करते हैं और अज्ञान की वृद्धि करते हैं । शास्त्रकार फरमाते हैं कि जो ऐसा कहते हैं वे अपने लिए जन्म-मरण की परम्परा बढ़ाते हैं। वे पुनः पुनः मृत्यु को प्राप्त होते हैं अथवा जीवित होते हुए भी गाढ़ आसक्ति के कारण मृतकवत होते हैं । ऐसी मिथ्या प्ररूपणा के फल स्वरूप नरक में जाना पड़ता है और नारकीय वेदनाएँ सहनी पड़ती हैं । 1. इसके पश्चात् तिर्यंच योनि में जन्म लेकर विविध प्रकार के दुखों को सहन करने पड़ते हैं । तात्पर्य यह है कि “स्त्रियाँ भोग्य पदार्थ हैं" ऐसा कथन करना दुख, मोह, मरण, नरक और तिर्यंच का कारण है । इस कथन के मूल में मोह रहा हुआ है । यह स्त्री का मोह सभी दुखों का मूल है । अतः आसक्ति का त्याग करने से ही सुख प्राप्त हो सकता है अन्यथा कभी नहीं ।
सययं मूढे धम्मं नाभिजाइ । उदाहु वीरे, अप्पमायो महामोहे, चलं कुसलस्स पमाएणं, संतिमरणं संपेहाए, भेउरधम्मं संपेहाए, नालं पास अलं ते एएहिं एवं पस्स मुणी ! महन्भयं ।
संस्कृतच्छाया - सततं मूढो धर्म नाभिजानाति । उदाह वीरोऽप्रमादः महामोहे । अल कुशलस्य प्रमादेन । शान्तिमरणं सम्प्रेक्ष्य भिदुरधर्मे संप्रेक्ष्य नातं पश्य, अलं तव एभिः । एवं पश्य मुने ! महद्भयं ।
शब्दार्थ — सययं निरन्तर । मूढे मूढ बना हुआ जीव | धम्मं धर्म को । नाभिजाइ-नहीं जानता है । वीरे वीर प्रभु ने । उदाहु = हढ़ता पूर्वक कहा है कि । महामोह मोह के 1 प्रधान निमित्तों में । अप्पमात्र प्रमाद नहीं करना चाहिए । संतिमरणं संपेहाए अप्रमाद से शान्ति और प्रमाद से मरण ऐसा विचार कर । भेउरघम्मं संपेहाए - शरीर की क्षणभंगुरता
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