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षष्ठ अध्ययन प्रथमोद्देशक ]
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कहा है । योग्यतापूर्वक किया हुआ त्याग ही अन्त तक टिक सकता है। बिना समझे हुए, आवेशवश अथवा संयोगों से परवश बनकर लिया हुआ त्याग सच्चा त्याग नहीं है। त्याग का उद्देश्य निरासक्ति का है । रागद्वेष की परिणति से मुक्त होने के लिए - तत्प्रकार के पदार्थों से परे रहना त्याग है। त्याग के बाद अनासक्त अवस्था आनी चाहिए। अनासक्ति के लिए त्याग आवश्यक है । भोग के साधनों के बीच में रहते हुए निरासक्त रह सकना किसी उच्च भूमिका पर पहुँचे हुए व्यक्ति के लिए भले ही संभव है। सभी लिए यह असंभव है । अतएव त्यागमार्ग का उपदेश दिया गया है। यह कर्मनिवारण का सरल उपाय है ।
तं परिकमंतं परिदेवमाणा मा चयाहि इय ते वयंति - छंदोवणीया, अज्झोववन्ना कंदकारी जागा रुयंति, प्रतारिसे मुणी (एय) ओहं तर ए जगा जेण विप्पजढा । सरणं तत्थ नो समेइ कहं नु नाम से तत्थ रमइ ? एयं नाणं सया समणुवासिज्जासि त्ति बेमि ।
संस्कृतच्छाया - तं पराक्रममाणं परिदेवमानाः मा परित्यज इति ते वदन्ति, चंदोपनीताः श्रभ्युपपन्नाः, आक्रन्दकारिणो जनका रुदन्ति । न तादृशो मुनि श्रौघं तरति जनकाः येन पौढाः, शरणं तत्र नो समेति कथन्नु नाम स तत्र रमते ? एतत्ज्ञानं सदा समनुवासयेरिति ब्रवीमि ।
शब्दार्थ — परिकमन्तं संयम अङ्गीकार करते समय । तं - उसको | ते जगा-पिता आदि स्वजन | परिदेवमाणा = विलाप करते हुए। इय वयंति - इस प्रकार कहते हैं । छंदोवणीया= हम तेरे अभिप्राय के अनुसार करने वाले हैं - अभोववन्ना - तेरे साथ इतना प्रेम करते हैं । मा चयाहि=तू हमें मत छोड़ । अकंदकारी - इस प्रकार आक्रन्दन करते हुए । रुयंति - रोते हैं - वे कहते हैं | जेण=जिसने | जणगा= अपने माता-पिताओं को । विप्पजढा छोड़ दिये हैं । अतारि मुणी = वह मुनि नहीं कहा जाता । णय श्रहं तरए = वह संसार ऐसे वचनों की । सरणं नो समेइ - शरण में नहीं जाता है । कहं संसार में । रमइ = रम सकता है। एयं नाणं - इस ज्ञान का बेमि= ऐसा मैं कहता हूँ ।
को नहीं तैर सकता । तत्थ =
नु
नाम = कैसे | से वह । तत्थ=
।
सया - हमेशा । समवासिं
जासि = पालन करना चाहिए । त्ति
भावार्थ- — जब वीर पराक्रमी पुरुष त्यागमार्ग पर जाने के लिए तैयार होते हैं तब उनके मातापिता श्रादि स्वजन शोक करते हुए, श्राक्रन्दन करते हुए कहते हैं । हम तेरी इच्छानुसार चलने वाले और तुझ से इतना स्नेह रखते हैं इसलिए तू हमें मत छोड़ । जो माता-पिता को छोड़ देता है वह आदर्श मुनि नहीं हो सकता और ऐसा मुनि संसार से पार नहीं हो सकता — ऐसे वचनों को सुनकर परिपक्व वैराग्य बाजा साधक उनकी बात को नहीं स्वीकार करता है। ( आत्मविकास की दृढ प्रतीति, होने, वह मोहजन्य संसार-सम्बन्ध में रम नहीं सकता है। इस ज्ञान की सदा उपासना करना सीखना चाहिए ।
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