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age अध्ययन तृतीयोदेशक ]
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एक तालाब के समान है और कर्म पानी के समान है। जिस तालाब में नवीन जल आता रहता हो तो उसमें से जल उलीचते रहने पर भी तालाब खाली नहीं हो सकता और अगर नवीन जल का आगमन रोक दिया गया परन्तु पुराना जल न सूखा तो भी सरोवर निर्जल नहीं हो सकता । इसी तरह जब तक
व का प्रवाह चालू है तब तक जीव कर्मरहित नहीं हो सकता और पूर्वसञ्चित कर्मों का तप के द्वारा क्षय न किया जाय तब तक भी निष्कर्म नहीं बना जा सकता । नवीन कर्मों को रोकने के लिए आरम्भ का त्याग और पूर्व सञ्चित कर्मों का क्षय करने के लिए तप अपेक्षित है । तपश्चर्या के द्वारा कोटि भत्र का सञ्चित कर्मपुञ्ज भी इस प्रकार भस्म हो जाता है जिस प्रकार अग्नि के करण के द्वारा रुई का ढेर । कहा हैभवको डिसचियं कम्मं तवसा निज्जरिज्जइ ।
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अर्थात् — करोड़ों जन्म का उपार्जित कर्म तप के द्वारा क्षीण हो जाता है । जिस प्रकार पक्षिणी अपने शरीर पर लगी हुई धूल को शरीर को हिलाकर झाड़ देती है इसी तरह अनशनादि तप करने वाला पुरुष कर्मों का क्षय कर देता है । जिस प्रकार स्वर्ण के मैल को दूर करने के लिए उसे अग्नि में डाला जाता है इसी तरह आत्मा की शुद्धि के लिए आत्मा को तप रूपी अग्नि में डालना चाहिए ।
तपश्चर्या का उद्देश्य शरीरदमन के साथ इन्द्रिय और मन पर विजय प्राप्त करना है । शरीर के पुष्ट होने से इन्द्रियाँ प्रबल होती हैं और वे विषयों की ओर तीव्रता से दौड़ती हैं । इन्द्रियों का विषयों के प्रति दौड़ना ही दुख का कारण है और यही संसार है। संसार से पार होने की इच्छा वाले मुमुक्षु के लिए इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करना आवश्यक है । देहदमन इन्द्रिय-विजय करने का साधन है । अतएव तप-श्चरणादि द्वारा शरीर का दमन करना चाहिए। शरीर-दमन एक साधन है और इन्द्रियों एवं वासनाओं पर विजय पाना साध्य है | साध्य को लक्ष्य में रखकर यदि साधनों का उपयोग किया जाय तब तो ठीक है लेकिन साध्य को भुला दिया जाय तो साधन निरुपयोगी सिद्ध होते हैं। संसार में कई प्राणी आत्मशुद्धि के लक्ष्य को भूलकर केवल शारीरिक कष्ट सहन करने का मार्ग स्वीकार करते हैं। कोई पञ्चाग्नि तप तपते हैं, कोई कांटों पर सोते हैं, कोई शेवाल खाकर रहते हैं, कोई मास-मास का उपवास करके पारणे में कुश मात्र खाते हैं लेकिन यह सब अज्ञानतप है। ऐसे तप का कोई श्रात्मिक लाभ नहीं होता क्योंकि इस तप का उद्देश्य गलत है। जिसका उद्देश्य ही अशुद्ध है तो वह कार्य शुद्ध कैसे हो सकता है ? सांसारिक वासनाओं से या यश की लालसा से किया हुआ तप भी बाल तप की कोटि में है। ऐसे तप से आत्मसंशोधन नहीं होता है | श्रात्मशुद्धि के उद्देश्य से किया हुआ तप ही कर्मों की निर्जरा का कारण होता है । कहा है
जे य बुद्धा महाभागा वीरा सम्मत्तदक्षिणो । सुद्धं तास परकेत अफलं होइ सव्वसो ||
अर्थात् – जो सम्यग्ज्ञानी, महाभाग, वीर एवं सम्यग्दृष्टि हैं उनका तप आदि अनुष्ठान शुद्ध है । उसीसे मोक्ष की प्राप्ति होती है। उन महापुरुषों का तप सांसारिक प्रयोजन के लिए नहीं होता। जो व्यक्ति तपश्चर्या करके उसका अभिमान करता है, मान-बड़ाई की अभिलाषा करता है और तप की प्रशंसा करता है उसका भी तप शुद्ध नहीं है। तप केवल निर्जरा की दृष्टि से ही करना चाहिए ऐसा तप ही उत्तम तप है। ज्ञानपूर्वक किया हुआ तपश्चरण ही मोक्षरूप साध्य को सिद्ध कर सकता है । मिध्यादृष्टियों द्वारा किया हुआ तप अज्ञान तप है क्योंकि वह शुद्ध उद्देश्यपूर्वक नहीं किया जाता है। इसीलिए मिध्यात्वी की
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