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पञ्चम अध्ययन तृतीयोद्देशक ]
क्रिया की जानी चाहिए । सर्वत्र समभाव स्थापन करने का प्रयत्न करना चाहिए। दृष्टि में से राग एवं द्वेष रूप विकारों को सर्वथा निकाल देना चाहिए | राग एवं द्वेष के आवेश को नष्ट करना ही समता है एवं समता ही धर्म है।
पदार्थ-त्याग के निरूपण में “समता ही धर्म है यह कह कर सूत्रकार ने यह सूचित किया है कि त्याग भी समतापूर्वक ही किया जाना चाहिए । प्रायः करके पदार्थों के त्याग में दो भावनाएँ होती हैं(१) पदार्थों के प्रति घृणा और (२) पदार्थों में सुख-दुख देने की शक्ति के न होने का अनुभव । पहिली भावना में वृत्ति में घृणा है । यह घृणा श्राज पदार्थों के प्रति है कल संयम के प्रति भी हो सकती है। अतएव घृणापूर्वक त्याग न होना चाहिए । घृणा एक प्रकार का प्रावेश है जो भिन्न दिशा भी ग्रहण कर सकता है । घृणा या आवेश में शुद्ध विवेक का अभाव होता है; ऐसे आवेशपूर्वक किये हुए त्याग में स्थिरता नहीं होती, धीरता नहीं होती अतएव साधना के लम्बे काल में उसके पतन की बहुत अधिक सम्भावना रहती है। अतएव त्याग का हेतु आवेश का शमन करने का होना चाहिए | आवेश का शमन गम्भीर विचारणा के बाद ही होता है। जब व्यक्ति को यह भान हो जाता है कि पदार्थों में सुख-दुख देने की शक्ति नहीं है । पदार्थ तो मात्र निमित्त हैं । मनुष्य की वृत्तियाँ ही अज्ञान से पदार्थों में सुख-दुख की कल्पनाएँ करती हैं। जिसे कोई वस्तु चाहिए उसे वह नहीं मिलती है तो उसे दुख होता है और मिलती है तो क्षणिक सुख होता है । परन्तु जिसे वस्तु ही नहीं चाहिए उसे वस्तु सम्बन्धी दुख या सुख हो ही कैसे सकता है ? सुख और दुख का कारण मेरी कल्पना है यह समझने के बाद ही सच्चा त्याग उत्पन्न हो सकता है। सच्चे त्याग में आवेश नहीं होता लेकिन समता होती है । अतएव समतापूर्वक त्याग करना चाहिए।
"समियाए धम्मे पवेइए" इसका अर्थ यह भी हो सकता है कि तीर्थकर देव सभी प्राणियों को समान भाव से धर्म का उपदेश फरमाते हैं । वे जिस प्रकार जिस भाव से एक राजा या चक्रवर्ती को या इन्द्र को उपदेश देते हैं उसी भाव से एक तुच्छातितुच्छ प्राणी को भी उपदेश प्रदान करते हैं । इसीलिए कहा गया है कि “जहा तुच्छस्स कत्थइ तहा पुण्णस्स कत्थइ, जहा पुरणस्स कत्थइ तहा तुच्छस्स कत्थइ"। जिस प्रकार सूर्य और चन्द्रमा की किरणें अभेदरूप से सर्वत्र गिरती हैं, वहाँ रंक और राव का भेद नहीं है; जिस प्रकार मेघ की धारा भेदभाव रहित सर्वत्र पड़ती है उसी तरह सर्वज्ञ तीर्थकर देव की वचनधारा पात्र-भेद को ध्यान में न लेकर सर्वत्र समान रूप से बरसती है ।
अथवा “समियाए” का संस्कृत रूप “शमितया" करने से यह अर्थ भी हो सकता है कि इन्द्रियों एवं मन के विकारों एवं कषायों के उपशम से तीर्थङ्कर देवों ने धर्म की प्ररूपणा की है।
सूत्रकार ने आगे चलकर इसी सूत्र में यह कहा है कि "तीर्थंकर भगवान ने यह कहा है कि "मैंने जिस प्रकार से कर्म-सन्तति का विनाश किया है उसी तरह अन्यत्र अन्य रीति से कर्मसन्तति का विनाश कठिन है" । इसका आशय यह है कि तीर्थंकर देव अन्य मुमुक्षुओं को यह उपदेश करते हैं कि जिस मार्ग पर चलकर मैंने कर्मों का विनाश किया है उस मार्ग पर चलकर तुम भी अपने कर्मों का क्षय कर सकते हो। मैंने समभाव की साधना के द्वारा कर्म का विनाश किया है। इसी समता के द्वारा तुम भी अपने कर्मों को तोड़ सकते हो । समता का मार्ग ही तुम्हें शीघ्र और सरलता से तुम्हारे साध्य तक पहुँचावेगा। मेरे दृष्टान्त को अपनी दृष्टि के सामने रखकर तुम अपने मार्ग पर अविरल चलते रहो। मेरा दृष्टान्त तुम्हें अवलम्बन भूत हो सकता है लेकिन चलने का पुरुषार्थ तो तुम्हें स्वयं ही करना होगा । अपने पुरुषार्थ को गुप्त न रखो। सत्यजिज्ञासा एवं मुमुक्षुता होने पर जहाँ कहीं रहकर मोक्ष-मार्ग की आराधना की जा
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