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[आचारा-सूत्रम अर्थात्-जो क्षमाशील है, जितेन्द्रिय और आत्मा का दमन करने वाला है, प्राध्यात्म में ही जिसका मन लगा है ऐसे मुझ साधु को यह विचारने से क्या लाभ कि वह स्त्री-मुख कुण्डल युक्त था या नहीं?
इसमें नहीं जानने का कारण जितेन्द्रियता और आध्यात्मिकता को बताया गया है। इससे राजा प्रसन्न हुआ। उसने मुनि से धर्म-श्रवण करने की अभिलाषा बतायी। मुनि ने दो-सूखे और गीले मिट्टी के गोलों के दृष्टान्त से यह उपदेश दियाः
उलो सुक्को य दो बूढा गालया मट्टियामया । दो वि आवाईया कुठे जो उसो तत्थ लग्गइ ॥ एवं लग्गति दुम्मेहा जे नरा कामलालसा ।
विरता उ न लग्गति जहा से सुक्कगोलए । अर्थात्-मिट्टी के दो गोले हैं। एक गीली मिट्टी का और दूसरा सूखी मिट्टी का। दोनों गोले अगर भीत पर फेंके जाएँ तो जो गीला है वह वहाँ चिपक जाएगा और जो सूखा है वह वहाँ नहीं चिपक सकता। इसी प्रकार जहाँ आसक्ति और वासना है वहाँ तो कर्मों का चिकना बंध होता है और जहाँ आसक्ति नहीं है वहाँ पापकर्दम भी नहीं है। जिनके चित्त में वासना है वे संसार के कीचड़ में फंसे रहते हैं और जो अनासक्त हैं वे सूखे गोले के समान संसार में नहीं फंसे रहते हैं । इस प्रकार मुनि की निस्पृहता
और वीतरागता का राजा पर बहुत प्रभाव पड़ा । तात्पर्य यह है कि जिस धर्म में वीतरागता और अहिंसा विशेष है वही धर्म उपादेय है । वीतराग-प्ररूपित अहिंसामय धर्म ही सच्चा धर्म है।
. यहाँ यह प्रश्न हो सकता है कि जो अहिंसा ही धर्म है तो दुनिया में जो विविध धर्म, मत, पंथ वगैरह भेद हैं सो किसलिये ? दुनिया में एक ही धर्म रहे तो सारी झंझटें ही दूर हो जाएँ । परन्तु यह प्रश्न जितना सुन्दर है उतना शक्य नहीं है। दुनिया में विविध प्रकृति और विविध कोटि के प्राणी रहते हैं अतएव भूमिका के अनुसार विभिन्न विकास के साधन अनिवार्य ही हैं। सत्य सर्वत्र व्यापक है तदपि एक है । इसी प्रकार धर्म एक ही है तदपि वह भिन्न २ रूप से सभी मतों में विद्यमान है । परन्तु इसे समझने के लिए जैनदर्शन की स्यावाद दृष्टि की आवश्यकता है । एक किरण अगर दूसरी किरण से लड़े इसकी अपेक्षा यदि एक किरण दूसरी किरण से मिले तो उसका विस्तार और तेज बढ़ जाता है । यही बात मत, पंथ और सम्प्रदाय के विषय में समझनी चाहिए । स्याद्वाद-दृष्टि जैनधर्म की विशेषता है। यह जैनदर्शन को उदार,व्यापक और सार्वत्रिक बनाती है । प्रभु महावीर ने दीर्घकालीन तपश्चर्या के फलस्वरूप जिस सत्य का अनुभव किया वह उन्होंने जगत् के सामने रख दिया है। जगत् उसमें से चाहे जितना बोध ले सकता है।
ऐसे सर्वज्ञानी सर्वदर्शी प्रभु महावीर यह फरमाते हैं कि अहिंसा ही धर्म का सार है । यही सम्यक्त्व की नींव है। अहिंसा समस्त जगत् के लिए पथ-प्रदर्शक दीपक है, संसार-समुद्र में डूबते हुए प्राणी को सहारा देने के लिए द्वीप है, त्राण है, शरण है, गति है। यह भगवती अहिंसा भयभीतों के लिए शरणरूप, भूखों के लिए भोजन रूप, तृषितों के लिए जलरूप, रोगियों के लिए औषधिरूप है। यह अहिंसा समस्त जगत् के चराचर प्राणियों के लिए मंगलमय है।
इति द्वितीयोद्देशकः
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