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तृतीय अध्ययन द्वितीयोदेशक ]
[ २३१
का संहार हो जाता है एवं असंख्य मनुष्य भयंकर यातनाएँ सहन करने के लिए बाध्य हो जाते हैं। इस वृत्ति के कारण जो भयंकर नर-संहार हुआ उसका शास्त्र में वर्णन मिलता है ।
कोणिक राजा ने हार और हाथी के लिए अपने भाइयों से भयंकर युद्ध किया जिसमें १ करोड़ और ८० लाख मनुष्यों का संहार हुआ । अन्य प्राणियों का कितना संहार हुआ होगा यह नर-संहार को देखकर समझा जा सकता है। कोणिक ने हार-हाथी के लिए अपने सहोदर दस बन्धुओं का विनाश किया और हाथ क्या आया ? हाथी मर गया और हार देवता ले गये। मुफ्त ही इतना घमासान हो गया। कोरिक को राज्य मिल गया था तदपि वह अपनी रानी पद्मावती की प्रेरणा से अपने भाई बहिलकुमार से, उसे न्याय अधिकार से प्राप्त हुए हार और हाथी मांगने लगा । बहिलकुमार को राज्य में हिस्सा नहीं मिला था उसे केवल हार और हाथी ही मिले थे तदपि उसे संतोष था । लेकिन कोगिक को राज्य मिल जाने पर भी हार और हाथी हथियाने की लोभवृत्ति पैदा हुई जिसका यह परिणाम हुआ कि इतना भीषण हत्या-काण्ड हुआ । लोभवृत्ति के कारण भाई-भाई का संहार कर देता है तो अन्य की क्या बात है ? कोरिक को हार और हाथी अपने भाइयों से भी अधिक कीमती जान पड़े । व्यक्तियों की बात छोड़ दीजिए और देखिये कि इसी लोभवृत्ति के कारण एक देश दूसरे देश को अपना गुलाम बना रखता है, उसको परेशान करता है और उसका शोषण करता है। आज भारतवर्ष भी विदेशी सत्ता की लोभवृत्ति का शिकार बना हुआ है । वह आज अंग्रेजों का गुलाम बना हुआ है। उनकी लोभवृत्ति ने भारतवर्ष के व्यापार और उद्योग-धन्धों पर पानी फेर दिया है । इसका आर्थिक शोषण दिन-प्रतिदिन बढ़ रहा है। भारत दिन-प्रतिदिन निर्धन और हीन बन रहा है यह विदेशी सत्ता की लोभवृत्ति के कारण ही है। लेकिन इसमें केवल विदेशी सत्ता का ही दोष नहीं है परन्तु भारतवासियों की लोभवृत्ति और विलासिता का सबसे ज्यादा दोष है । भारतवासी लोभवृत्ति में और विलासिता में पड़कर विदेशी वस्तुओं को अपनाते हैं और अपने देश को दीन-हीन बना रहे हैं। अगर भारतवासी स्वदेशी वस्तुओं को अपनावें और विलास के साधनों को दूर करें तो वे शीघ्र ही गुलामी से मुक्त हो सकते हैं।
यह लोभवृत्ति का अनिष्ट परिणाम है । जिस प्रकार चालनी में पानी नहीं भरा जा सकता उसी प्रकार लोभ और संकल्प-विकल्पों की पूर्ति नहीं हो सकती । तात्पर्य यह है कि सुखाभासरूप सांसारिक सुखों से सच्चा सुख नहीं प्राप्त हो सकता। सच्चा सुख तो सच्चे त्याग के अन्दर छिपा हुआ है ।
श्रासेवित्ता एतं श्रटुं इच्चेवेगे समुट्ठिया, तम्हा तं बिइयं नो सेवे निस्सारं पासिय नाणी । उववायं चवणं णच्चा, अणणं चर माहणे, से न छणे न छणावए, छतं नाणुजाण, निव्विंद नंदि, चरए पयासु, प्रणोमदंसी, निस पावेहिं कम्मेहिं ।
संस्कृतच्छाया— श्रासेव्यैतदर्थमित्येवे के समुत्थिताः, तस्मात्तं द्वितीयं नासेवेत निस्सारं दृष्ट्वा ज्ञानी । उपपात च्यवनं ज्ञात्वा, अनन्यं चर मुने !, स न क्षणुयात् न घातयेत्, घातयन्तं न समनुजानीयात्, । निर्विन्दस्व नंदी, रक्तः प्रजासु, अनवमदर्शी, निषण्णः पापकर्म्मभ्यः ।
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