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[श्राचाराङ्ग-सूत्रम् जाते हैं । पावमुक्खुत्ति पाप से छुटकारा होगा यो। मन्त्रमाणे मानता हुआ । अदुवा अथवा । प्रासंसाए किसी प्रकार की आशा से ।
भावार्थ-शरीरबल, जातिबल, मित्रबल, परलोकबल, देवबल, राजबल, चोरबल, अतिथिबल, भिक्षुकबल, श्रमणबल आदि विविध बलों की प्राप्ति के लिए यह अज्ञानी प्राणी विविध प्रकार की हिंसक प्रवृत्ति में पड़कर जीवों की हिंसा करता है । कई बार इन कार्यों से पापों का क्षय होगा अथवा इस लोक और परलोक में सुख मिलेगा इस प्रकार की वासना से भी अज्ञानी प्राणी सावध कर्म करता है।
विवेचन-कितना सत्य, शिव और सुन्दर तत्त्व है कि जो सदा दूसरों को अभय देता है वही सदा निर्भय रहता है। औरों को सताने वाला कभी निर्भय नहीं हो सकता है। वह हमेशा अपने कमों के फल स्वरूप सशंकित रहता है और डरता रहता है । इस डर से अपनी रक्षा करने के विचार से वह शक्ति संग्रहीत करता है, विविध प्रकार के बलों को प्राप्त करने की इच्छा करता है और उन बलों को प्राप्त करने की अभिलाषा से पुनः पुनः जीवों की हिंसा करता है। (१) मैं शक्तिशाली बन , मेरा शरीर दृढ़ बने इसके लिए भी प्राणी मांसभक्षणादि क्रिया करते हैं और अनेक प्रकार के उपायों द्वारा शरीर को पुष्ट बनाने के लिए अनेक प्रकार की हिंसक प्रवृत्ति करते हैं। (२) स्वजनों और जाति वालों की सहायता पाने के लिए उनको जिमाने में या उनको प्रसन्न करने के लिए हिंसा करता है। (३) मित्रों का बल प्राप्त करने के लिए-अर्थात् मित्रों की सहायता से मैं आपत्ति को शीघ्र पार कर लँगा इस अभिलाषा से मित्रों को खुश करने के लिए हिंसादि प्रारम्भ किये जाते हैं । (४) परलोक में यह मेरी सहायता करेगा इसलिए बकरे आदि को बलि चढ़ाते हैं। (५) देवता का बल प्राप्त करने के लिए पचन-पाचनादिक क्रियाओं द्वारा हिंसा की जाती है। (६) रायबले-राजा की सहायता पाने के लिए राजा की स्तुति और सेवा करने के लिए प्रारम्भ किया जाता है। (७) चौरों के चुराये हुए माल का भाग मुझे मिले इसके लिए चोरों की सेवा-भक्ति और उनका सन्मान करता हुआ हिंसा करता है। (८) अतिथि मुझ पर प्रसन्न होकर मेरी सहायता करेंगे इस अभिलाषा से अतिथि का सत्कार करता है। () इसी प्रकार भिक्षुक
और (१०) श्रमणों की कृपा प्राप्त करने के लिए उनकी सेवा-भक्ति करता है और उनके लिए हिंसादिक कार्य करता है । तात्पर्य यह है कि विविध प्रकार के बलों की प्राप्ति के लिए यह प्राणी विविध रीति से प्राणियों की हिंसा करता है। "अगर मैं यह नहीं करूँगा तो मुझे शरीरबल, जातिबल आदि बल प्राप्त नहीं होवेंगे।” इस विचार से और डर से प्राणी इन बलों को प्राप्त करने लिए प्राणियों में दंडसमारंभ करता है। उपरोक्त बात तो इहलौकिक कारणों से हिंसा करने के सम्बन्ध में कही गई हैं परन्तु कई अज्ञानी प्राणी परमार्थ को नहीं जानते हुए, पापों से छुटकारा पाने लिए भी हिंसा करते हैं । वे देवी-देवताओं के आगे बलिदान करते हैं, यज्ञयागादि में पशुओं की बलि देते हैं और ऐसा करके यह मानते हैं कि इससे हमारे पाप छूट जावेंगे परन्तु वे मूर्ख प्राणी यह नहीं समझते कि पाप, पाप से कैसे मिट सकता है ? खून का दाग खून से कैसे मिटाया जा सकता है ? इस प्रकार जाते तो हैं पाप से छूटने और अज्ञान से अधिक पापों से बन्ध जाते हैं । इसी प्रकार आशा और लालसा के वशीभूत होकर प्राणी हिंसक कार्यों को करता है। ऐसा करने से मुझे परलोक में सुख मिलेगा, अथवा धन आदि की आशा से राजालोगों और धनिकों की चाटुकारिता करता है और उनको प्रसन्न रखने के लिए हिंसादि कार्यों में प्रवृत्ति करता है। आशा के जाल में पड़े हुए प्राणीरूपी बन्दर को राजा या धनिकादि मदारी के समान नाच नचाते हैं । अर्थाभिलाषा से प्राणी जैसा वे राजा या श्रीमन्त कहते हैं वैसा ही करता है। कहा भी है
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