Book Title: Acharanga Sutram
Author(s): Saubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
Publisher: Jain Sahitya Samiti

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Page 633
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ५६० ] [ श्राचाराङ्ग-सूत्रम देते हुए गति करते थे । चक्खुभीया = देखकर डरे हुए । संहिया = मिलकर | वह वे = बहुत से बालक | हन्ता हन्ता = धूल की मुट्ठियाँ फेंक- फेंक कर । कंदिंसु = कोलाहल करते थे ||५|| वितिमिस्से हिं= गृहस्थों के सम्पर्क वाले । सयहिं= स्थानों में रहने पर । तत्थ = वहाँ । इत्थिओ - स्त्रियों को | परिभाय = प्रत्याख्यान- परिज्ञा से छोड़कर | से= वह भगवान् | सांगारियं = मैथुन का । न सेवेइ = सेवन नहीं करते थे । से सयं = वह भगवान् अपने आपको । पवेसिया = विरक्ति मार्ग में लगाकर | झाइ=प्रशस्त ध्यान में लीन रहते थे || ६ || जे के इमे अगारत्था = जो कोई गृहस्थ थे उनके साथ | मीसीभावं= सम्पर्क को । पहाय = छोड़कर | से= वह भगवान् । भाइ = प्रशस्त ध्यान करते थे । पुट्ठोऽवि = गृहस्थों के पूछे जाने पर भी । न. भिभा सिंसु = उत्तर नहीं देते थे । गच्छइ=अपने ही रस्ते चलते थे। अंजू = चे संयमी । नाइवत्तइ = मोच पथ का उल्लंघन नहीं द्वारा करते थे ॥७॥ भावार्थ- वे भगवान् अपने शरीर - प्रमाण आदि में सँकड़े और आगे से विस्तीर्ण माग को आंख से देखते हुए अर्थात् युगपरिमित भूमि का अवलोकन करते हुए एकाग्र होकर लक्ष्यपूर्वक ईर्यासमिति से चलते थे | भगवान् को देखकर डर कर या कुतूहल से कई बालक आदि इकट्ठे होकर धूल फेंक- फैक 1 ja 1. कर हल्ला करते थे ||५| कभी कभी गृहस्थों के संसर्ग वाले स्थान में रहते तत्र कामविहल स्त्रियां भोग की प्रार्थना करत किन्तु स्त्री के प्रति मोह करना - भोग भोगना बंध का कारण जानकर, प्रत्याख्यान- परिज्ञा से छोड़कर भगवान् ने मैथुन का सेवन नहीं किया । वे आत्मा को विरक्ति के मार्ग में लगाकर प्रशस्त ध्यान में ही लीन. रहते थे || ६ || कभी गृहस्थों के सम्पर्क में रहने पर भी वे उनमें घुलते-मिलते नहीं थे । गृहस्थों के सम्पर्क को छोड़कर वे धर्म-शुक्ल ध्यान में लीन रहते थे । गृहस्थों के पूछने पर भी उत्तर नहीं देते थे ( मौन का वलम्बन लिये हुए थे ) वे अपने ही रस्ते पर चलते थे । उन संयमी भगवान् ने कभी मोक्षपथ का या शुभ ध्यान का उल्लंघन नहीं किया ||७|| विवेचन - भगवान् की चर्या का वर्णन करते हुए कहा गया है कि वे चलते समय ईर्यासमिति का पूरा ध्यान रखते थे | अपने शरीर परिमाण भूमि को ध्यानपूर्वक देखते हुए वे विचरण करते थे । चार ज्ञान के स्वामी भगवान् भी जब चलते हुए इतनी सावधानी रखते थे तब सामान्य साधकों को तो कितनी अधिक सावधानी रखनी चाहिए। भगवान् ने अपने चर्या गुण के द्वारा ईर्यासमिति के पालन पर विशेष ध्यान देने का संकेत किया है। चलते समय मन, वाणी और शरीर की अन्य प्रवृत्तियों को रोककर सावधानीपूर्वक चलना चाहिए। कुतूहल से इधर-उधर दृष्टि डालते हुए कभी नहीं चलना चाहिए। चलते हुए वाचना, पृच्छना, पर्यटना और अनुप्रेक्षा तक का निषेध किया गया है इसलिए मन, वचन और तन को For Private And Personal

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