________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir
११२ ]
[आचाराग-सूत्रम् को चाहिये कि ज्ञपरिज्ञा द्वारा हिंसा और उसके कटुक परिणामों को जानकर प्रत्याख्यान परिज्ञा द्वारा उसका त्याग करे। स्वयं हिंसा न करे, अन्य से न करावे और हिंसा करते हुए अन्य को अनुमोदन न देइस प्रकार तीन करण से और मनसा, वाचा, कर्मणा रूप तीन योग से हिंसा का त्याग करना चाहिए ।
___ श्री सुधर्मा स्वामी अपने प्रिय शिष्य जम्बू स्वामी से कहते हैं कि हे आयुष्मन् जम्बू ! यह उपदेश मैं नहीं दे रहा हूँ लेकिन यह उपदेश सर्वज्ञानी और सर्वदर्शी तीथक्करों ने देव-मनुजादि बारह प्रकार की पर्षदा में अतिशय के प्रभाव से सभी प्राणियों के हितार्थ अपनी २ भाषा में परिणत हो जाने वाली अमोघ वाणी द्वारा फरमाया है। यह अहिंसा का राजमार्ग तीर्थंकर देवों ने भव्य प्राणियों के हितार्थ प्ररूपित किया है । जिस मार्ग का अनुभव स्वयं ने प्राप्त किया है और जिस मार्ग पर चलकर उन वीतरागदेवों ने परमानन्द का अनुभव किया है उसी मार्ग पर चलने के लिये वे भव्य प्राणियों को उपदेश देते हैं । अतः चतुर एवं निपुण प्राणी का यह कर्त्तव्य है कि हिंसा के लेप से अपनी आत्मा को अलिप्त रखे और परमानन्द का अनुभव करे।
---उपसंहारजब तक आत्मसाक्षात्कार नहीं हो जाता है तब तक पूर्वाध्यासों के कारण साधक को अनेक प्रकार की कठिनाइयाँ उपस्थित होती हैं और वह उपनी साधना में अस्थिर हो जाता है। ऐसे प्रसंगों में दृढ़ता से काम लेना चाहिये और जिन वीर पुरुषों ने इस मार्ग पर चलकर परमानन्द प्राप्त किया है उनके वचनों में सम्पूर्ण श्रद्धा और विश्वास रखना चाहिये । यही ऐसी अवस्था में श्रेष्ठ अवलम्बन है।
इति प्रमादेशकः ।
इति प्रथमोदेशकः
For Private And Personal