________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
शक्य ]
[ श्रचासज-सूत्रम्
परिग्रह से मुक्त हो गए हैं । वे विरत हैं। जो ममता-परिग्रह से मुक्त हैं और जो पापों से विरत हैं ऐसे मुभि ही भावोध - संसार समुद्र को तैर चुके हैं ऐसा मैं कहता हूँ। जो सर्वदर्शी हैं और तदनुसार वर्ताव करने वाले हैं ऐसे ही प्राणी स्वयं तिरते हैं और दूसरों के तारक बन सकते हैं। केवल तत्त्वज्ञान की बातों से ही कोई तारक नहीं हो जाता । ज्ञान और विरति मोक्ष के प्रधान कारण हैं ।
दुव्वसुमुखी णाणार, तुच्छए गिलाइ वत्तए । एस वीरे पसंसिए, अह लोयसंजोगं एस नाए पवुचइ ।
Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir
संस्कृतच्छाया -- दुर्वसुमुनिः अनाज्ञया, तुच्छः ग्लायति वक्तुं । एष वीरः प्रशंसितोऽत्येति लोकसंयोगम्, एष न्यायः प्रोच्यते ।
शब्दार्थ — प्रणाणाए तीर्थङ्करों की आज्ञा को न मानकर स्वच्छंद बना हुआ | दुव्वसु मुणी = मुनि मोक्ष प्राप्ति के अयोग्य होता है । तुच्छए = वह ज्ञानादि से रिक्त होने से । वत्तए = पूछे जाने पर प्रत्युत्तर देने में । गिलाइ ग्लानि का अनुभव करता है । लोयसंजोगं-जो दुनिया की जंजाल से । अच्चे = पार होता है। एस = वही । वीरे= वीर | परांसिए= प्रशंसा के योग्य हैं। एस ना - यही तीर्थकरों का मार्ग न्यायमार्ग | पवुच्चइ - कहा जाता है।
1
भावार्थ - तीर्थंकर देव की आज्ञा को न मानकर जो साधक स्वच्छंदी वनकर विचरता है वह मुक्ति प्राप्त करने के लिए सर्वथा अयोग्य है । ऐसे साधक विज्ञान से पूर्ण होने की वजह से प्रश्न पूछे जानेपर प्रत्युत्तर देने में ग्लानि, भय और संकोच का अनुभव करता है । इसलिए जो वीतराग की आज्ञा का आराधक बनकर संसार की जंजाल से पार हो जाता है वही वीर सचमुच प्रशंसा के योग्य हैं । तीर्थ1 कर प्ररूपित यही मार्ग न्यायमार्ग कहा जाता
है
1
विवेचनवन- प्रस्तुत सूत्र में आराधकत्व और अनाराधकत्व की चर्चा की गई है। जो वीतराग की आज्ञा का आराधक है वही मोक्ष का आराधक हो सकता है। जो वीतराग की आज्ञा का आराधक नहीं है वह मोक्ष का अधिकारी भी नहीं हो सकता है। वीतराग की आज्ञा के आराधन से ही मुक्ति की धाराधना हो सकती है, अन्यथा नहीं । जो व्यक्ति अपने स्वच्छन्दाचार से वीतराग देव की आज्ञा के विरुद्ध आचरण करते हैं वे मोक्ष प्राप्ति के लिए अयोग्य हैं।.
वीतराग की आज्ञा, संसारी जीवों को संसार के जन्म-मरण आदि की यातनाओं से छुड़ाने वाली, परम मङ्गलमयी, सर्वजनहितकारी, संदभूत अर्थों को प्रकट करने वाली, एकान्तवादियों के द्वारा कदापि पराभूत न होने वाली, नय और प्रमाणों से वस्तु-तत्त्व का बोध देने वाली, मिध्यादृष्टियों के लिए दुर्ज्ञेय और भव्यजनों के परम पुरुषार्थ को प्रकट करने वाली है। जिनेश्वर देव राग-द्वेष से परे हो चुके हैं, आकांक्षा और लोभ का समूल क्षय कर चुके हैं अतः वे कभी असत्य भाषण नहीं कर सकते। उनके असत्य भाषण का कोई कारण ही नहीं है। अतः कहा है कि- "मान्यथा वादिनो जिनाः । श्रर्थात् जि
For Private And Personal