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अष्टम अध्ययन पञ्चमोद्देशक ।
[५४३
एयप्पगारे अथवा अन्य इस प्रकार का सदोष आहार पानी । भुत्तए वा भोगना अथवा । पायए पानी । नो खलु मे कप्पइ-मुझे नहीं कल्पता है ।
भावार्थ-प्रसंग वश किसी साधक को ऐसा मालूम होने लगे कि मैं रोगादि संकटों से ग्रसित होने से इतना अशक्त हो गया हूँ कि मैं एक घर से दूसरे घर जाकर भिक्षाचर्या लाने में समर्थ नहीं हूँ। ( यह बात किसी को स्वाभाविक रूप से कहने पर ) यह सुनकर कोई भावुक गृहस्थ उस साधु के लिए
आहारादि पदाथ उसके स्थान पर लाकर देने लगे तो मुनि साधक उसे लेने के पूर्व ही विवेकपूर्वक उससे कहे कि हे आयुष्मन् गृहस्थ ! मेरे निमित्त यहां लाये हुए ये पदार्थ अथवा अन्य इस प्रकार के सदोष पदार्थ मुझे ग्रहण करना या खाना, पीना नहीं कल्पता है । (मेरे नियमानुसार मैं इन्हें नहीं ले सकता हूँ)।
विवेचन-इस सूत्र में कठिनाई के समय में भी अपने नियमों का सख्ती के साथ पालन करने का उपदेश दिया गया है। भिन्नु साधक कदाचित् रोगादि के कारण इतना निर्बल हो गया हो कि वह एक घर से दूसरे घर घूम कर भिक्षाचर्या ला सकने में सर्वथा असमर्थ हो गया हो तो भी उसे अपने नियमों को भङ्ग करके गृहस्थ द्वारा सन्मुख-अपने स्थान पर लाया हुआ-आहार पानी नहीं लेना चाहिए। हो सकता है कि साधु ने अपनी स्थिति का वर्णन सहज स्वभाव से किसी के सामने किया हो और वह गृहस्थ साधु के प्रति अपनी भक्ति के कारण या भद्रस्वभाव के कारण अपने घर जाकर आहारादि तैयार करके और उन्हें लेकर साधु के स्थान पर आकर कहे कि हे महात्मन् ! आप अनुग्रह करके इसे ग्रहण करिए । साधक अपने विवेक से यह जान ले कि आहार अभ्याहृत है। सामने लाया हुआ है। इसलिए सदोष है, यह मेरे काम का नहीं है। ऐसा जान कर उस गृहस्थ को समझावे कि "आयुष्मन गृहस्थ ! जैन श्रमणों का यह आचार है कि वे अपने निमित अपने स्थान पर लाया हुआ अशनादि ग्रहण नहीं करते। अपने इस श्राचार के अनुसार मैं तुम्हारा लाया हुअा अशनादि नहीं ग्रहण कर सकता हूँ"।
यहाँ यह बात स्मरण में रखनी चाहिए कि साधु, गृहस्थ द्वारा लाया हुआ आहारादि नहीं ले सकते हैं परन्तु अन्य साधु द्वारा लाया हुआ आहारादि पदार्थ ले सकते हैं। गृहस्थों द्वारा लाये हुए
आहार का निषेध करने में दो श्राशय प्रतीत होते हैं । एक तो साधु का गृहस्थ के साथ गाढ़ सम्पर्क का निवारण करना और दूसरा साधक में श्रम के द्वारा शिथिलता का न आने देना। अगर गृहस्थ इस प्रकार साधुओं के स्थान पर आहारादि लाकर देने लगेंगे तो साधुश्रो का गृहस्थों के साथ अति परिचय होना स्वाभाविक है। इस अति परिचय के कारण रागभाव पैदा हो जाना मामूली बात है। रागभाव श्रा जाने के बाद तत्काल या नजदीक भविष्य में त्यागमार्ग में शिथिलता पाने की सम्भावना रहती है। इस श्राशय से गृहस्थों की इस प्रकार की सेवा साधक स्वीकार नहीं कर सकता है । सूत्रकार के इस कथन से भलीभांति सिद्ध हो जाता है कि मुनियों की सेवा के लिए मुनि ही उपयुक्त हैं। किसी मुनि साधक की बीमारी में उसकी सेवा शुश्रूषा करना दूसरे मुनियों का कर्तव्य हो जाता है । मुनियों का जीवन किसी को बाधारूप नहीं होता इसलिए मुनिद्वारा लाया हुआ थाहार अशक्त मुनि कर सकते हैं। दूसरी बात यह है कि यदि साधु की बीमारी में अपवादरूप कोई गृहस्थ आहारादि लाकर दे और वह मुनि ले ले तो यह संभव है कि विवेक-चक्षु के अभाव में यह अपवाद धीरे २ रूढिरूप में परिणत हो जाय । ऐसा होने से साधुओं का गृहस्थों के साथ परिचय गाढ़ होगा और साथ ही साधुओं में पराश्रयता और प्रालस्य अपना
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