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पश्चिम अध्ययन षष्ठ उद्देशक ]
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इससे मुक्त जीव अपुनरावृत्ति वाले हैं। इस कथन से अवतारवादियों का खण्डन समझना चाहिए। कई तीर्थी यह मानते हैं कि जब दुनिया में पाप बढ़ जाता है और अपने धर्म की हानि होती है तब ईश्वर पुनः संसार में अवतार लेता है लेकिन यह मान्यता बुद्धिसंगत और ग्राह्य नहीं है क्योंकि जब कारणों का नाश हो जाता हैं तो कार्य का भी नाश होता है । यह सर्वसम्मत सिद्धान्त है । मुक्त अवस्था में ऐसा कोई कारण नहीं है जिससे पुनर्जन्म रूप कार्य हो । जिस प्रकार बीज के अत्यन्त दग्ध होने पर उससे अंकुर उत्पन्न नहीं हो सकता इसी प्रकार कर्मरूपी बीज के जल जाने पर पुनः भवरूपी अंकुर कैसे फूट सकता है ? कहा भी है
दग्धे बीजे यथाऽत्यन्तं प्रादुर्भवति नांकुरः । कर्मबजे तथा दग्धे न रोहति भवांकुरः ॥
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श्लोक का भाव ऊपर दिया जा चुका है। अतएव मुक्त जीव पुनर्जन्मरहित हैं। यही मानना चाहिए । जहाँ जन्म है वहाँ मरण अवश्यंभावी है। अगर ईश्वर का जन्म माना जाता है तो उसका मरण भी मानना चाहिए । जहाँ जन्म-मरण है वहाँ ईश्वरत्व कैसे सम्भव है ? यह विचारणीय है ।
मुक्ति में रहा हु जी सभी प्रकार के संग से र हत है । वह अमूर्त है अतएव संगरहित है । न स्त्री है, न पुरुष है, न नपुंसक है। यह शरीर होने पर संभव है, मुक्ति में शरीर ही नहीं अतः यह लिंग भेद भी नहीं है। मुक्त जीव परिज्ञाता है। वह आत्मा के समस्त प्रदेशों से जानता है और देखता है। अतएव वह संज्ञ - ज्ञानदर्शन युक्त है।
शिष्य प्रश्न करता है कि हे गुरुदेव ! मुक्तात्माओं का स्वरूप यदि नहीं जाना जा सकता है तो आप किसी उपमा द्वारा उनका स्वरूप बताने की कृपा करें। शिष्य की इस प्रार्थना के उत्तर में सद्गुरु . कहते हैं कि हे शिष्य ! मुक्तात्माओं का स्वरूप बताने के लिए कोई उपमा नहीं है। क्योंकि सदृश वस्तु
से
उपमा दी जा सकती है । मुक्तात्मा के ज्ञान और सुख की तुल्यता करने वाला अन्य नहीं है अतएव यह अनुपमेय है— जोड़ है - द्वितीय है मुक्तात्माओं की सत्ता रूपी है। वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, आकार
दि की कोई अवस्था वहाँ नहीं है अतएव उसके वाचक शब्द की गति नहीं है इसलिए " श्रपयस्स पर्यं गत्थि” यह कहा गया है । वह मुक्तात्मा वर्णादि रहित है अतएव इन्द्रिय-ग्राह्य नहीं है। इसलिए कहा गया है कि वह अनिर्वचनीय है - अनुभवगम्य है । जो साधक श्रासक्तिरहित हो जाता है वह ऐसी स्थिति को प्राप्त करता है ।
- उपसंहार -
जो सच्चा पुरुषार्थी और श्रद्धालु होता है वह वीतराग की आज्ञा का आराधक होता है । भोगों में सुख नहीं है लेकिन संयम में सुख है । निरासक्त पुरुष अकर्मा बन जाता है वह मोक्ष को प्राप्त करता है । मुक्तात्मा की दशा अनिर्वचनीय और अनुभवगम्य है । मुक्तात्मा वीतराग हैं अतएव संसार के कार्यकरण से सम्बद्ध होने से अवतार धारण नहीं करते हैं । श्रसक्ति--राग-द्वेष परिणति से रहित होना ही सार पाना है। जो अनासक्त है वह लोक का सार प्राप्त करता है ।
इति पञ्चमाध्ययनम्
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