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तृतीय अध्ययन चतुर्थोद्देशक ]
[ २६६ आत्मदर्शन हुआ कि विश्वदर्शन हुआ । श्रात्मा को जाना कि संसार के प्रत्येक पदार्थ को जाना । यह बात एक छोटे से दृष्टान्त से समझी जा सकती है।
एक मनुष्य किसी गाँव के प्रति जाना चाहता है। वहाँ तक पहुँचने के बीच में अनेक मार्ग फटते हैं पर प्रत्येक मार्ग पर पाटिया लगा हुआ है और उस पर उस स्थल का नाम लिखा हुआ है। वह मनुष्य उन पाटियों की तरफ ध्यान नहीं देता है और उसे किधर जाना है यह भी उसके ध्यान में नहीं है । वह अनेक पगदण्डियों पर भ्रमण करता है लेकिन अपने निश्चित स्थल पर नहीं पहुँच सकता है । यद्यपि वह इधर-उधर भटकते हुए अनेक दृश्यों का अनुभव करता है तदपि वह इष्ट स्थान पर नहीं पहुँच सकता है और जब तक पाटियों पर लिखे हुए अक्षरों की जानकारी न कर ले तब तक उसका परिश्रम व्यर्थ होता है। अगर वह अक्षरों को पढ़ ले तो अपने नियत मार्ग पर ही चलकर इधर उधर भटके बिना सीधा अपने स्थान पर पहुँच जाता है। इतना ही नहीं, वरन् अपने असली मार्ग से जाते हए वह अन्य मागों का भी अनुभव कर सकता है। इसी तरह जिसे आत्मदर्शन रूपी चाबी प्राप्त हो गयी है वह अपने इष्ट मार्ग पर ही चला जाता है और साथ ही अन्य पदार्थों के विविध धर्मों को भी उसी चाबी द्वारा सहज ही जान लेता है।
विज्ञान भी एक ही परमाणु में अनन्त शक्ति मानता है। हमारे प्राचार्य प्रारम्भ से यह कहते हैं कि "शब्द में शक्ति है ।" विज्ञान ने यह बताया कि शब्द में विविध शक्ति हैं । टेलीफोन, रेडियो यह शब्द की शक्ति के विविध परिणाम है। तात्पर्य यह है कि एक आत्मा के साक्षात्कार होने से संसार के सभी पदार्थों का ज्ञान हो जाता है । अतएव बाह्य पदार्थों के रहस्य को समझने के लिए प्रयत्न करने की अपेक्षा आत्मा के रहस्य को समझना चाहिए। जिसने इस रहस्य को पा लिया उसने सब पा लिया। इसलिए कहा है कि जो एक आत्मा को जानता है वह सबको जानता है । जो सबको जानता है वह एक को जानता है।
सव्वश्रो पमत्तस्स भयं, सव्वश्रो अपमत्तस्स नत्थि भयं । संस्कृतच्छाया-सर्वतः प्रमत्तस्य भयं, सर्वतोऽप्रमत्तस्य नास्ति भयं ।
शब्दार्थ-पमत्तस्स-प्रमादी के लिए। सव्वश्रो सभी तरह से । भयं=डर है। अप्पमत्तस्स अप्रमादी के लिए । सव्वो सभी तरह से । भयं भय । नत्थि नहीं है।
भावार्थ-प्रमादी को सभी प्रकार का डर रहता है । अप्रमत्तात्मा को किसी प्रकार का डर नहीं रहता है।
विवेचन-पूर्वसूत्र में आत्मा का साक्षात्कार करने के लिए कहा गया है। सर्वज्ञता प्राप्त करने के लिए आत्म-साक्षात्कार करना आवश्यक है । प्रमादी प्राणी अात्म-दर्शन नहीं कर सकता और सर्वज्ञता नहीं प्राप्त कर सकता । इसलिए इस सूत्र में सूत्रकार प्रमाद से हानि और अप्रमाद से सिद्धि होती है यह उपदेश फरमाते हैं।
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