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लोकसार नाम पञ्चम अध्ययन - तृतीयोदेशकः -
गत उद्देशक में चरित्रगठन एवं उसके उपायों का दिग्दर्शन कराया गया है । निष्परिग्रह-वृत्ति का वर्णन करते हुए यह कहा गया है कि "मूर्च्छा ही परिग्रह है" । कोई मूढ़ व्यक्ति इस कथन के गूढाशय को न समझ कर यह समझने की भूल न कर बैठे कि चाहे जितने पदार्थों का उपभोग करने की छूट है केवल मूर्छा नहीं होनी चाहिए। इसलिए इस उद्देशक में इस भ्रम का निवारण किया गया है और पदार्थत्याग की आवश्यकता बतायी गई है:
श्रावंती यावंती लोयंसि श्रपरिग्गहावंती, एएस चेव अपरिग्गहावंती, सुच्चा वई मेहावी पंडियाण निसामिया, समियाए धम्मे रिहिं पवेइए, जहित्य मए संधी कोसिए एवमन्नत्थ संधी दुज्झोसए भवइ, तम्हा बेमि नो निहणिज्ज वीरियं ।
संस्कृतच्छाया— यावन्तः केचन लोके अपरिग्रहवन्तः एतेषु चैव अपरिहवन्तः (भवन्ति ) श्रुत्वा वाचं मेधावी पण्डितानां निशम्य, समतया धर्मः श्रयैः प्रवेदितः यथाऽत्र मया संधिषितः एवमन्यत्र संधिः दुझयो भवति तस्मात् ब्रवीमि नो निगूहयेत् वीर्यम् ।
शब्दार्थ — श्रावंती- जितने । केयावंती = कितनेक | लोयंसि लोक में । अपरिग्गहावंती=निष्परिग्रही होते हैं वे | मेहावी = बुद्धिमान् । वई तीर्थङ्कर देवों ने वचनों को । सुच्चा = सुनकर | पंडिया - गणधरादि के पास । निसामिया - शास्त्रश्रवण कर । अपरिग्गहावंती सर्व प्रकार के पदार्थों का त्याग करके ही अपरिग्रही बनते हैं। आरिएहि तीर्थङ्करों द्वारा | समियाए = समता से | धम्मे= धर्म | पवेइए कहा गया है । जहित्थ - जिस प्रकार यहाँ । मए मैंने । संधि कर्मों की सन्धि को । भोसिए - तीरा की है । एवं इस प्रकार | अन्नत्थ = दूसरी जगह । संधी=कर्म-सन्धि । दुज्झोसए– क्षीण होना कठिन । भवइ है । तम्हा = इसलिए | बेमि= मैं कहता हूँ कि । वीरियं = अपनी शक्ति का । नो निहणिज= गोषन न करना चाहिए ।
भावार्थ - इस संसार में जो कोई ( गृहस्थ अथवा साधु ) निष्परिग्रही बनते हैं वे सब तीर्थंकर देव की वाणी को सुनकर अथवा गणधरादि महापुरुषों की शिक्षाओं का विचार करके विवेकी बनकर
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