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अष्टम अध्ययन अष्टम उद्देशक ]
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संस्कृतच्छाया - ग्रामे वा अथवा अग्रये, स्थण्डिलं प्रत्युपेक्ष्य ।
अल्पप्राणं तु विज्ञाय तृणानि संस्तरेत् मुनिः ||७|| श्राहारस्त्वग्वर्त्तनं कुर्यात् स्पृष्टस्तत्राध्यासयेत् । नातिवेलमुपचरेत् मानुष्यैर्विस्पृष्टवान् ||८||
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शब्दार्थ — गामे वा ग्राम में । श्रदुवा= अथवा । रराणे = जंगल में । थंडिलं=भूमि को । पडिले हिया = देखकर । अप्पपाएं प्राणी से रहित । विभाय = जानकर | मुणी = साधु | तणाई = तृण की शय्या | संथरे = बिछाये ||७|| श्रणाहारी आहार का त्याग करके । तुयद्विजा= उस पर शयन करे | तत्थ पुट्ठो - वहाँ परीपह-उपसर्ग श्राने पर । अहियासए = सहन करे । माणुस्सेहिं=मनुष्यसम्बन्धी | विपुटुवं उपसर्ग से स्पृष्ट होने पर । नाइवेलं उवचरे = मर्यादा का उल्लं घन न करे ||८||
भावार्थ - ग्राम में या निर्जन वन में भूमि को देखकर और उसे जीव-जन्तु से रहित जानकर ( प्रमाजन कर ) मुनि घास का बिछौना बिछावे ||७|| तदनन्तर आहार का त्याग करे और उस पर शयन करे | आने वाले परीषहों और उपसर्गों को क्षमाभाव से सहन करे । मनुष्यों द्वारा उपसर्ग होने पर अपनी ग्रहण की हुई मर्यादा का उल्लंघन न करे ||८||
विवेचन - संलेखना द्वारा शुद्ध होने पर मुनि अपना अन्तिम अवसर आया हुआ जानकर निर्दोष भूमि का परीक्षण करे। वह भूमि चाहे वस्ती में हो, चाहे वन में हो। सूत्रकार ने ग्राम शब्द से उपाश्रय का सूचन किया है और अरण्य शब्द से उपाश्रय से बाहर की भूमि का सूचन किया है। ग्राम में, नगर में, राजधानी में और अन्य वस्ती में रहे हुए उपाश्रय में अथवा गिरि-गुहा या उद्यान आदि निर्जन स्थान में संस्तारक भूमिका निरीक्षण करे। उस भूमि को जीव-जन्तुओं से रहित जानकर वहाँ पूर्वोक ग्राम, नगर, खेडा, कबंट, मडम्ब श्रादि में से तृणों की याचना करे और उचित काल का ज्ञाता मुनि योग्य समय पर दर्भमय शय्या बिछावे ।
इसके पश्चात् अपनी धृति और शक्ति के अनुसार त्रिविध अथवा चतुर्विध आहार का प्रत्याख्यान करे और परिपूर्ण विशुद्धि के लिए पुनः पाँच महाव्रत अङ्गीकार करे। इसके पश्चात् संसार के समस्त प्राणियों से क्षमायाचना करे। सबसे क्षमायाचना करके और सबको क्षमा-प्रदान करके सुख-दुख में समभाव रखता हुआ, मृत्यु से किसी प्रकार का भय न रखता हुआ उस दर्भमय शय्या पर शयन करे।
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यदि यहाँ शयन करते हुए देव और तिर्यञ्च सम्बन्धी कोई परीषह और उपसर्ग हो तो उसे दृढ़ता के साथ सहन करें । इसीतरह मनुष्य सम्बन्धी अनुकूल या प्रतिकूल कोई उपसर्ग हो तो अपनी मर्यादा का भंग न करे । पुत्र, कलत्र आदि सांसारिक सम्बन्धी या मोहवश बने हुए अन्य प्रियजन अनुकूल परीषह दें तो साधक को इतना दृढ़ होना चाहिए कि वह उनके कारण आर्त्तध्यान न करने लगे और इसी तरह प्रतिकूल संयोगों में साधक क्रोध का शिकार न हो जाय । साधक को प्रत्येक अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति में दृढ़ता, धीरता और विवेकशक्ति से काम लेना चाहिए। उसे किसी भी अवस्था में ग्रहण की हुई मर्यादा का उल्लंघन नहीं करना चाहिए।