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अष्टम अध्ययन अष्टम उद्देशक ]
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सिद्धि चाहता है वह रत्न को काच के मोल बेच देता है। इसलिए मुनि को किसी प्रकार का निदान नहीं करना चाहिए । आगम में कहा गया है:
इहलोगासंसप्पओगे ? परलोगासंसप्पओगे २ जीवियासंसप्पओगे ३ मरणासंसप्पओगे ४ कामभोगासंसप्पओगे ५।
__ अर्थात्-सच्चे आराधक मुनि को इस लोक की महिमा पूजा की अभिलाषा १, परलोक में देव की ऋद्धि श्रादि की अभिलाषा २, जीवित रहने की अभिलाषा ३, दुख से घबरा कर मरने की अभिलाषा ४ और कामभोगों की अभिलाषा ५, का त्याग करना चाहिए । इनकी अभिलाषा करने से इस विधि का सम्यग् अाराधन नहीं हो सकता। ब्रह्मदत्त के उदाहरण से निदान का कटुक फल जानकर साधक किसी तरह का निदान न करे ।
एकान्त संयम और मोक्ष का ही विचार करके काम और इच्छालोभ का सर्वथा परिहार करे। मोक्षरूप उज्ज्वल कीर्ति के सामने सांसारिक पदार्थों का क्या मोल हो सकता है ?
सूत्रकार ने 'दिव्वमायं न सहहे' कह कर साधक को सावधान कर दिया है कि वह देवताओं के द्वारा विचलित किये जाने पर भी चलायमान न हो। कोई देव परीक्षा के लिए, कौतुक के लिए, भक्ति के लिए या साधना से विचलित करने के लिए दिव्य ऋद्धि का प्रदर्शन करे और उस ऋद्धि को मुनि को समर्पित करने लगे तो मुनि उसकी माया में न फंसे । अथवा कोई देवाङ्गना दिव्यरूप धारण कर मुनि से भोग-याचना करे तो मुनि उसके माया-जाल में न फंसे । सच्चा मुनि पूर्वोक्त बातों को माया-जाल समझे और उनमें न फंसे । मुनि अपने कर्मों को दूर कर सत्यतत्त्व को समझता रहे।
जो मुनि किसी भी वस्तु में आसक्ति नहीं रखता है वह विधिपूर्वक पादपोपगमन की आराधना करता हुआ और वर्तमान शुभ अध्यवसाय रखता हुआ जीवन के पार पहुंच जाता है।
इस प्रकार इस उद्देशक में भक्तपरिज्ञा, इङ्गितमरण और पादपोपगमन रूप तीनों पण्डित-मरण का स्वरूप दिखाकर उपसंहार करते हुए सूत्रकार यह बताते हैं कि काल, क्षेत्र, पुरुष और अवस्था के आश्रय से ये तीनों मरण तुल्यकक्ष है । अपनी शक्ति का विचार कर मुनि को किसी भी एक प्रकार का पण्डितमरण स्वीकार करना चाहिए। पण्डितमरण में मुख्य बात सहिष्णुता है । समभावपूर्वक परीषहों और उपसगों को सहन करना ही इन मरणों का मुख्य प्राचार है । अतः इन्हें हितकर, कल्याणकर और मोक्षप्रदाता समझ कर मुनि यथोक्त रूप से इनका सेवन करे। विधिपूर्वक इनका अनुष्ठान करने वाला साधक सब दुखों से छूटकर सिद्ध-बुद्ध हो जाता है ।
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इति अष्टममध्ययनम्
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