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[प्राचाराग-सूत्रम् होकर समाधिमरण से जीवन का अन्त करे। यदि बैठे २ इस विधि को अंगीकार की हो तो अन्त तक बैठा ही रहे । खड़े २ की हो तो खड़ा रहे और जिस श्रासन से की हो उसी श्रासन से स्थित रहे । निर्जीव की तरह निश्चेष्ट रहे । अवयवों का सूक्ष्म संचालन भी इसमें निषिद्ध है । यह पादपोपगमन की विधि उत्तम धर्म है । अपने सामर्थ्य को देखकर साधक को इसका स्वीकार करना चाहिए ।
अचित्तं तु समासन्ज हावए तत्थ अप्पगं । वोसिरे सव्वसो कायं न मे देहे परीसहा ॥२१॥ जावजीवं परीसहा उवसग्गा इति संखया । संवुडे देहभेयाए, इय पन्नेऽहियासए ॥२२॥
संस्कृतच्छाया-अचित्तं तु समासाद्य स्थापयेत्तत्रात्मानम् ।
व्युत्सृजेत् सर्वशः कायं न मे देहे परीषहाः ।।२२।। यावजीवं परीषहा उपसर्गाः इति संख्याय ।
संवृतो देहभेदाय इति प्राशोऽध्यासयेत् ॥२२॥ शब्दार्थ-अचित्त=निर्जीवस्थान या पाटिया आदि । समासज प्राप्त करे । तत्थ= उस पर अप्पगं-अपने आपको। ठावए स्थापित करे। सव्वसो-सब तरह से । कार्य-शरीर का। वोसिरे ममत्व छोड़ दे। मे देहे मेरे शरीर में। न परीसहा परीषह नहीं हो रहे हैं ऐसा विचारे॥२१॥ जावजीव-जब तक जीवन है तब तक। परीसहा-उवसग्गा-परीषह और उपसर्ग हैं। इति संखया यह जानकर । संवुडे काया का निरोध करने वाला । देहभेयाए शरीर का भेद करने के लिए उत्थित । पन्ने बुद्धिमान मुनि । अहियासए सहन करे ॥२२॥
भावार्थ-निर्जीव भूमि और फलक आदि को प्राप्तकर मुनि उस पर अपने आपको स्थापित करे। विधिपूर्वक अपने शरीर के ममत्व का सर्वथा परित्याग कर दे और यह विचार करे कि मेरे शरीर में परी'षह नहीं हो रहे हैं । ( शरीर ही मेरा नहीं है तो परीषह कसे हो सकते हैं ? ) ॥२१॥ जब तक जीवन है तब तक परीषह और उपसर्ग तो आने ही वाले हैं यह जानकर पूरी तरह काया का निरोध करने वाला देहभेद के लिए उत्थित और बुद्धिमान् मुनि आने वाले सब परीषह-उपसर्गों को सहन करे ॥२२॥
विवेचन-पादपोपगमन-विधि में देह का ममत्व सर्वथा छोड़ना आवश्यक है। ममत्व के छूटने पर ही यह उत्कृष्टतम विधि हो सकती है अन्यथा नहीं। इसलिए इन गाथाओं में देह के ममत्व का पूरी तरह त्याग करने का कहा गया है । इस विधि को अङ्गीकार करने वाले साधक को यह समझ लेना चाहिए कि यह शरीर उसका है ही नहीं । शरीर के रहते हुए भी अपने आपको अशरीरी अनुभव करने का सामर्थ्य उत्पन्न होने पर ही इस विधि का आराधन हो सकता है। इसकी विधि इस प्रकार है:- ...:
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