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चतुर्थ अध्ययन चतुर्थीदेशक ]
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वाला नहीं है । तुम सभी मनुष्यों के साथ इसी सागर में डूब मरोगे । श्ररणक ! जिद्द न करो, कह दो धर्म झूठा है, नहीं तो इतने मनुष्यों की हत्या का दोष तुम्हारे सिर होगा जहाज के लोग भी घबरा रहे थे । वे सभी यह चाहते थे कि अरणक धर्म को झूठा कह दे और शान्ति हो जाय । लोगों में से कई पर दबाब डाल रहे थे कि " कह दो न धर्म झूठा है- कहने से क्या हो जाता है ? तुम्हारे इतने से कहने से शान्ति हो जाती है तो कहने में क्या हर्ज है ? कई लोग श्ररक को उसकी दृढ़ता के लिए गालियां दे रहे थे, कई ताने और उपालम्भ की वर्षा कर रहे थे लेकिन अराक श्रावक जरा भी विचलित न हुए । उनके अन्तःकरण में धर्म के प्रति अंशमात्र भी भेद नहीं आया वरन् ऐसे समय में धम के प्रति उनकी श्रद्धा- उनका विश्वास और भी अधिक दृढ़ हो गया। उन्होंने लोगों के वचनों पर लोकनिन्दा पर ध्यान न दिया और पर्वत के समान निष्कंप - अडोल वृत्ति से देव को जबाब दिया कि हे देव, तुम्हें जो करना हो सो तुम करने में स्वतंत्र हो । मैं कदापि अपने मुँह से सत्य धर्म को मिथ्या नहीं कह सकता । जो जिह्वा सत्यधर्म को मिथ्या कहे उसे मुँह में रखकर क्या करूँगा ?
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अरक के ऐसे निडर वचनों को सुनकर और अवधिज्ञान के द्वारा अराक के विचारों में तनिक भी हीनता न आती देखकर तथा वर्धमान परिणामों को जानकर देवता दिव्य रूप धारण कर सन्मुख उपस्थित हुआ और अपने अपराध के लिए क्षमा प्रार्थना करने लगा । अराक की धर्म-दृढ़ता की प्रशंसा के और दो कुण्डल की जोड़ी भेंट करके देव चला गया। धर्म पर दृढ़ रहने से सर्व उपद्रव दूर हो जाते हैं।
रक श्रावक जिस तरह सत्य पर स्थिर रहे उसी तरह सच्चा सम्यक्त्वी, सच्चा सत्याग्रही अपने धर्म पर सदा डोल रहता है। सच्चे सम्यक्त्वी में वीरता, अप्रमत्तता, सत्पुरुषार्थ, विवेक, पापभीरुता आत्माभिमुखता ये गुण सहज ही प्रकट जाने चाहिए।
श्री सुधर्मास्वामी अपने शिष्य जम्बूस्वामी को लक्ष्य करके सभी जीवों को उपदेश करते हैं कि अतीत, अनागत और वर्त्तमान में जो महापुरुष हुए हैं, होंगे और हैं उन सभी का यही उपदेश है जो मैंने कहा है। तत्त्वदर्शी पुरुष को किसी प्रकार की उपाधि नहीं होती। उसके लिए नारक, तिर्यञ्च, मनुष्य, देव, सुखी, दुखी, दुर्भग, सुभग, पर्याप्त, अपर्याप्त इत्यादिक सांसारिक नाम-निर्देश नहीं हो सकता है । वह संसार
आधि-व्याधि और उपाधि से मुक्त हो जाता है । तत्त्वदर्शी को उपाधि नहीं रहती यह जानकर विकासमार्ग में प्रवृत्ति करनी चाहिए ।
——उपसंहार—
तपश्चरण में भी विवेक सम्यग्ज्ञान की आवश्यकता रहती है । प्रत्येक कार्य में क्रम और विवेक रखने से सफलता प्राप्त होती है। तपश्चर्या का उद्देश्य केवल देह को कृश करना ही नहीं है लेकिन मर्कट के समान चञ्चल चित्तवृत्तियों पर काबू करना है । यह कार्य कठिन है अतएव इसके लिए सतर्क रहने की श्रवश्यकता है। तपश्चर्या द्वारा कर्मों को जानकर वर्त्तमान कार्यों की शुद्धि पर लक्ष्य देना चाहिए । सत्यनिष्ठा ही वीरता की कसौटी है । सत्य ही श्रानन्द-दाता है ।
इति चतुर्थमध्ययनम्
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