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त्याग न टके रे वैराग बिना करिए कोटि उपायजी ।
इसलिए साधक का यह कर्त्तव्य हो जाता है कि वह अनासक्त होकर संयम में रति का अनुभव करे और मोहोदय से होने वाली अरति को दूर करे |
तज्ज्ञानमेव न भवति यस्मिन्नुदिते विभाति रागगणः । तमसः कुतोऽस्ति शक्तिर्दिनकरकिरणाग्रतः स्थातुम् ?
[ श्राचारान-सूत्रम्
शंका होती है कि सूत्रकार ने सूत्र में मेधावी ( बुद्धिमान् ) को अरति दूर करने के लिए कहा है परन्तु मेधावी तो संसार के स्वरूप को जानता है अतः उसे संयम में अरति हो ही नहीं सकती है। अगर संयम में अरति उत्पन्न होती है तो वह मेघावी ही नहीं है । मेधावी और अरति में छाया और श्रातप के समान सहानवस्थान ( एक साथ न रहने का ) रूप विरोध है कहा है कि :
अर्थात् — जहाँ रागादि पाये जाते हैं वहाँ ज्ञान हो नहीं सकता है। जैसे सूर्य की किरणों के सामने अन्धकार टिक ही नहीं सकता । जो अज्ञानी और मोहान्ध होता है उसे ही विषयानुराग के कारण संयम हो सकती है, विद्वान को नहीं । विद्वान् तो मोक्षमार मेंही प्रवृत्ति करेंगे, वे तुच्छ विषयों में कभी रति कर ही नहीं सकते । हाथी कभी छोटे छोटे वृक्षों से अपने गण्डस्थल को नहीं टकराता है, वह तो उसका उपरोक्त बड़े बड़े स्कन्ध वाले वृक्षों और दुर्ग के कपाटों पर तथा रणसंग्राम में ही करता है । उसी तरह विद्वान् अपनी शक्ति का उपयोग संयम में ही करेगा । ऐसा करने से ही वह मेधावी कहला सकता है। अन्यथा नहीं | तो सूत्रकार ने मेधावी को अरति दूर करने का उपदेश दिया इसका क्या आशय है ?
उपरोक्त शंका योग्य नहीं है क्योंकि यहाँ पर प्रकृत सूत्र में जिसने चारित्र ग्रहण किया है उसे उपदेश करना सूत्रकार का ध्येय है और चारित्र का ग्रहण ज्ञान के बिना नहीं हो सकता है क्योंकि ज्ञान का फल विरति कहा गया है इस अपेक्षा से चारित्रग्रहण करने वाले को बुद्धिमान् कहा गया है। ऐसे बुद्धिमान को भी संयम में रति हो सकती है क्योंकि विरोध रति और अरति का है, ज्ञान और अरति में विरोध नहीं है इसलिए ज्ञानी को भी चारित्र - मोहनीय के उदय से संयम में रति उत्पन्न हो सकती है। चूंकि ज्ञान भी अज्ञान का ही बाधक है, संयम में उत्पन्न अरति का बाधक नहीं है जैसा कि कहा है
ज्ञानं भूरि यथार्थ वस्तु-विषयं स्वस्य द्विषो बाधकं,
रागारातिशमाय हेतुमपरं युङ्क्ते न कर्तृ स्वयं । दीपो यत्तमसि व्यक्ति किमु नो रूपं स एवैक्षतां,
सर्वः स्व-विषयं प्रसाधयति हि प्रासङ्गिकोऽन्यो विधिः ।
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अर्थात् - ज्ञान अपने ज्ञेय पदार्थ को ही ग्रहण करता है और तद्विषयक ज्ञान का बाधक होता
है । रागादि दोषों की शान्ति का कारण ज्ञान नहीं किन्तु अन्य चारित्रादि गुण है । जिस वस्तु का जो गुण होता है, जिसका जो विषय होता है उसकी उसी में प्रवृत्ति होती है जैसे दीपक अन्धकार को नष्ट ही कर सकता है किन्तु स्वयं पदार्थों को नहीं देखता है । पदार्थ के ज्ञान में मात्र निमित्त बनता है उसी प्रकार ज्ञान भी अज्ञान का ही बाधक होता है उसकी प्रवृत्ति संयम में रति अरति के विषय में नहीं हो सकती ।