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[प्राचारा-सूत्रम्
संयम से भ्रष्ट होने का प्रसंग पाता है। जो साधक मन के अश्व को बेगलाम छोड़ देते हैं वे अवश्य सन्मार्ग से भ्रष्ट होते हैं।
जो व्यक्ति प्रथम तो सिंह के समान उत्थित होते हैं और बाद में शृगाल के समान कायर बन कर साधना का मार्ग छोड़ देते हैं वे उभयतः भ्रष्ट होते हैं। वे न संयम के मार्ग में रहते हैं और न संसार में सुख से रह सकते हैं। इसके लिए कुण्डरीक का दृष्टान्त विचारणीय है। दीक्षा छोड़ने के बाद वह अल्प समय में ही मृत्यु को प्राप्त हुआ। ऐसे लोग साधारण जनों के द्वारा भी निन्दित होते हैं। दुनिया में उनकी अपकीर्ति होती है। दुनिया कहती है कि यह पहिले साधु था। साधु होकर यह पुनः भोगों की अभिलाषा से गृहस्थी बन गया है। यह अविश्वसनीय है। इसने अपने कुल की लज्जा खो दी है। यह निर्लज्ज है। इत्यादि रूप से यह प्राकृत पुरुषों द्वारा भी गर्हित होता है।
इसके बाद सूत्रकार यह बताते हैं कि किन्हीं साधकों का उपादान ही इतना अशुद्ध होता है कि वे संयम में सफल नहीं हो सकते । ऐसे साधकों पर सत्पुरुषों की संगति का भी असर नहीं पड़ता है। ऐसे साधक उप्र-विहारियों के संसर्ग में रहने पर भी प्रमादी बने रहते हैं, विनीतों के सम्पर्क में भी अविनीत बने रहते हैं, विरतात्माओं के संग में भी अविरत होते हैं और पवित्र पुरुषों के समागम में भी अपवित्र बने रहते हैं। उपादान की शुद्धि पर सब निर्भर है। उपादान शुद्ध होने पर ही निमित्त कारण सफल होते हैं। इस कोटि के साधक दयापात्र हैं । सचमुच पापियों से घृणा करने से पाप कम नहीं होते हैं लेकिन पाप बढ़ते हैं इसलिए पापात्माओं के प्रति भी सहज प्रेम प्रदर्शित करना चाहिए। पापों से घृणा होनी चाहिए पापी से नहीं । यह भी ध्यान में रखने योग्य बात है।
उपर्युक्त सब बातों के रहस्य को समझ कर पण्डित, मर्यादाशील और मोक्षार्थी पीर साधक अपने पराक्रम को शास्त्रोक्त मार्ग की ओर लगावे । आगमानुसार पुरुषार्थ करके साधक अपने साध्य को सिद्ध कर सकते हैं । इस तरह वे सकल कमों का धुनन करके मोक्ष के अविचल सिंहासन पर आरूढ़ हो जाते हैं।
-उपसंहारसाधना का मार्ग बड़ा विषम है। इसमें अनेक सम-विषम अवस्थाएँ सामने आती हैं । इन अवस्थाओं को पार करके वही व्यक्ति इस पथ पर प्रयाण करता हुआ लक्ष्य को प्राप्त करता है जो संकटों और प्रलोभनों में नहीं फँसता हुआ अडोल पर्वत के समान अचल व धैर्य गुण-सम्पन्न होकर लक्ष्य की ओर बढ़ता जाता है । साधना में सिद्धि प्राप्त करने के लिए गौरवत्रिक का त्याग अनिवार्य होता है। जो व्यक्ति सातागौरव, ऋद्धिगौरव और रसगौरव से गर्वित होता है वह पतन को निमन्त्रित करता है । गौरव का धुनन करने से और समता-योग की सिद्धि करने से साधना सफल होती है और लक्ष्य की प्राप्ति होती है।
इति षष्ठमध्ययनम् toon
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