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[प्राचाराग-सूत्रम्
जंब पुञ्जीभूत होते हैं तभी यह अवसर प्राप्त होता है। यह जानकर इस प्राप्त अवसर का महत्त्व समझना चाहिए और उसका सदुपयोग करना चाहिए। निकला हुआ अवसर फिर कई गुणा परिश्रम करने पर भी हाथ नहीं आता । यह समझ कर विषयादि प्रमादों में आसक्ति नहीं करनी चाहिए।
जो साधक इस औदारिक शरीर की भूत, वर्तमान और भावी पर्यायों का अन्वेषण करता है वह कदापि प्रमत्त नहीं हो सकता। यह शरीर क्षणभङ्गुर है; इसके लिए अपनी शाश्वत वस्तु की हानि नहीं करनी चाहिए । जो व्यक्ति शरीर पर आसक्त होकर आत्मा को भूल जाते हैं वे कांच की चमक से लुभाकर रत्न की ओर उपेक्षा करते हैं । सञ्चा साधक शरीर को एक साधन मानता है और उसको साधन के समान ही महत्त्व देता है । वह साधन को साध्य मानने की भूल कदापि नहीं करता। जब तक शरीर संयम के पालन में सहायक होता है वहीं तक साधक उसका निर्दोष रीति से पालन करता है। यह औदारिक मानव शरीर भी बड़े पुण्योदय से ही प्राप्त होता है। इसका सदुपयोग करने से ही इस अमूल्य देह के मिलने का कुछ अर्थ हो सकता है। शरीर की पर्यायों का विचार कर, अमूल्य अवसर प्राप्त हुश्रा जानकर कदापि संयम में प्रमाद न करना चाहिए। यह कह कर सूत्रकारने पूर्वाध्यासों के वश न होने की सूचना की है।
एस मग्गे पारिएहिं पवेइए, उहिए नो पमायए, जाणित्तु दुक्खं पत्तेयं सायं, पुढो छंदा इह माणवा पुढो दुक्खं पवेइयं से अविहिंसमाणे अणवयमाणे, पुढो फासे विपणुन्नए एस समिया परियाए वियाहिए ।
संस्कृतच्छाय-एष मार्गः आर्यैः प्रवेदितः, उत्थितः न प्रमादयेत् । ज्ञात्वा दुःखं प्रत्येकं सातं, पृथक्छंदा इह मानवाः पृथग्दुःखं प्रवेदितं, अविहिंसन्, अनपवदन्, स्पृष्टः स्पर्शान् विप्रेरयेत् । एषः सम्यग्पर्यायः ( शमितापर्यायः ) व्याख्यातः ।
शब्दार्थ-एस-यह । मग्गे मार्ग । आरिएहि तीर्थंकर देवों के द्वारा । पवेइए कहा गया है । पत्तेयं प्रत्येक प्राणी का । दुक्खं दुख और । सायं-सुख भिन्न २ । जाणित्त जानकर। उट्ठिए अवजित होकर । नो पमायए प्रमाद नहीं करना चाहिए । इह इस संसार में । माणवा= मनुष्य । पुढो-भिन्न २। छंदा-अभिप्राय वाले हैं। पुढो दुक्ख-दुख भी प्रत्येक का भिन्न २। पवेइयं कहा है अतः । से यह मुनि । अविहिंसमाणे-किसी भी प्राणी की हिंसा न करते हुए। श्रणवयमाणे-मृषावाद नहीं बोलते हुए। पुढो परीषह और उपसर्गों के आने पर । फासे उन संकटों को । विपणुन्नए सम्यक सहन करके दूर करे । एस-ऐसा मुनि ही। समियापरियाए= उत्तम चारित्रशील | वियाहिए कहा गया है । .. भावार्थ-तीर्थकर देवों ने यह मार्ग बताया है और यह भी समझाया है कि प्रत्येक प्राणी के
सुख और दुख भिन्न २ होते हैं ऐसा जानकर संयमी साधक को साधना के मार्ग में जरा भी प्रमाद न करना चाहिए | इस संसार के प्राणियों के अभिप्राय भिन्न २ हैं और दुख भी पृथक् पृथक् हैं इसलिए
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