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तृतीय अध्ययन तृतीयोदेशक ]
[ २४१
कयाइ वि-कभी | नो पमायए = प्रमाद न करे | आयगुत्ते = आत्मा का गोपन करके । सया वीरे= सदैव धीर बनकर । जायामायाह - देह को संयम - यात्रा का साधन मानकर | जावए = उसका निर्वाह करे ।
भावार्थ – सच्चा साधक समभाव से अपनी आत्मा को प्रसन्न रक्खे | ज्ञानवान् साधक समभाव को अपना परम लक्ष्य बनाकर संयम में कदापि प्रमाद न करे तथा इन्द्रियों और मन पर विजय प्राप्त कर - वीर साधक देह को संयम यात्रा का साधन मानकर उसका सम्यग् उपयोग करे ।
विवेचन. - इस सूत्र में नैश्चयिक मुनिभाव का स्वरूप बताया है। इसके पूर्व सूत्र में शिष्य ने प्रश्न किया था कि जो त्यागी अपने सहयोगी साधुओं की शर्म से या गृहस्थादिकों की निन्दा से श्रधाकर्मादि पाप का सेवन नहीं करता है तो उसे त्यागी कहना चाहिए कि नहीं ? आचार्य फरमाते हैं कि साधुता और त्याग, समता - समानभाव से सम्बन्ध रखते हैं । इस क्रिया के द्वारा दूसरे मेरी निन्दा करेंगे अथवा मेरी पूजा और प्रतिष्ठा में क्षति पहुँचेगी इस प्रकार की अन्यान्य समाजैषणा और लोकैषरणा के खातिर डर और शर्म से जो पापकर्म नहीं करता है वह सच्चा त्यागी नहीं है । जहाँ समता है वहाँ त्याग है। त्याग में निर्भयता और स्वाभाविकता का होना आवश्यक है ।
आत्मानन्द का जिसे यथार्थ अनुभव हो जाता है वह समाज के डर या शर्म से कोई काम नहीं करता है वरन उसे अपना कर्त्तव्य समझ कर करता है। कीर्ति अथवा प्रदर्शन के हेतु किए हुए त्याग का वास्तविक कोई अर्थ नहीं। जब तक सच्ची विरक्ति नहीं तब तक त्याग टिक ही नहीं सकता । जहाँ सच्ची विरक्ति है वहाँ वृत्तियों में मन में पदार्थों को ग्रहण करने की भावना का जन्म ही कैसे हो सकता है ? जिसे संसार के पदार्थों की असारता का ज्ञान हो गया हो और ऐसा ज्ञान होने पर ही उसने पदार्थों का त्याग किया हो तो उसे दोष सेवन करने की भावना ही नहीं हो सकती । परन्तु सच्ची विरक्ति के बिना संयोगों के दबाव के कारण जिसने त्याग मार्ग ग्रहण किया है वह त्याग की सच्ची आराधना करने में समर्थ नहीं हो सकता इसलिए साधक को चाहिए कि समता का विकास करे । आत्मा में ज्यों-ज्यों समभाव बढ़ता जायगा त्यों-त्यों साधुता और मुनि-धर्म प्रकट होता जायगा । समभाव को अपना ध्येय बनाना चाहिए । इसी ध्येय से सभी क्रयाएँ करनी चाहिए न कि समाज के डर से या कीर्ति से । समभाव से क्रियाएँ करते हुए अपनी आत्मा को उपशान्त प्रसन्न रखना यही मुनि-धर्म है ।
अथवा सूत्र में "समय" पद आया है उसका अर्थ आगम भी होता है । मतलब यह है कि आगमों-शास्त्रों का पर्यालोचन करके तदनुसार सभी क्रियाएँ करना मुनि-भाव का कारण है । श्रागमों का एवं समता का पूरा विचार करके आत्मा को प्रसन्न रखना चाहिए। श्रात्मा की प्रसन्नता संयम पर ही निर्भर है। जो किसी डर से या शर्म से क्रिया करता है उसकी श्रात्मा सदा सशङ्कित रहती है । उसे सदा यह डर बना रहता है कि कोई मेरी निन्दा न करे, कोई देख न ले और कहीं कोई यह जान न ले । जहाँ शङ्का प्रसन्नता टिक ही नहीं सकती। चोर चोरी करता है किन्तु उसकी आत्मा में सदा शंका बनी रहती है कि कहीं पकड़ा न जाऊँ । इस आशंका के कारण वह सुखी नहीं हो सकता । चोरी करके धन पा लेने पर भी उसे धन पाने का संतोष नहीं होता लेकिन यही डर उसे सताता रहता है कि कहीं मैं पकड़ा न जाऊँ । इसी तरह साधु अगर शंका या डर से पापकर्म नहीं करता है तो जब उसे मौका मिलेगा, वह पापकर्म कर
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