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अष्टम अध्ययन चतुर्थोदेशक ]
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श्राते हैं । यही बात पाहत मत के लिए भी है । द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से उत्सर्ग मार्ग भी अगुणकर हो सकता है और अपवाद मार्ग गुणकारी होता है। द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव का विचक्षण साधु उत्सगे और अपवाद मार्ग में किसका श्राश्रय लेना यह स्वयं जान सकता है। ब्रह्मचर्य का खण्डन संयमी जीवन का सर्वथा विरोधी है और संयमी जीवन के हनन से प्रात्मा का हनन होता है इसलिए अब्रह्म द्वारा आत्मा का हनन करने की अपेक्षा अपघात करना श्रेयस्कर कहा गया है।
ऐसे प्रसंग पर जो साधक मरण की शरण ग्रहण करते हैं वे अनशन करके पण्डितमरण मरने वाले साधकों के समान ही लाभ प्राप्त करते हैं । वे इस वैहासनमरण के द्वारा ही कर्मों का अन्त करने वाले होते हैं । इस अपवादमरण से मरकर भी साधक सिद्धि को प्राप्त कर सकते हैं। यह वैहानसादिमरण अनेक निर्मोहीजनों द्वारा प्राचीर्ण है । यह हितकर, सुखरूप और युक्तियुक्त है। इसका फल अनेक भवों में पुण्यरूप होता है। साधक प्राणान्त करना और ऐसे मरण से मर जाना पसन्द करे परन्तु अब्रह्म का सेवन न करे । यह कहकर प्रतिज्ञा को दृढ़ता से पालन करने की सूत्रकार सूचना कर रहे हैं।
साधक में अपनी प्रतिज्ञा के लिए देह अर्पण कर देने तक की भावना होनी चाहिए। यह संकल्प बल प्रत्येक साधक के लिए आवश्यक है।
इति चतुर्थोद्देशकः tos
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