________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir
५६२ ]
राज-सूत्रम्
णो सुकरमेयमेगेसिं नाभिभासे य अभिवायमाणे । हयपुव्वे तत्थ दण्डेहिं लूसियपुव्वे अपुरणेहिं ॥८॥ फरसाइं दुतितिक्खाइं अइअच मुणी परक्कममाणे । श्राघायनट्टगीयाइं दण्डजुद्धाइं मुट्ठिजुद्धाइं ॥६॥ गढिए मिहुकहासु समयम्मि नायसुए विसोगे अदक्खु ।
एयाइं से उरालाइं गच्छइ नायपुत्ते असरणयाए।१०। संस्कृतच्छाया-न सुकरमेतदेकेषां नामिभाषते चाभिवादयतः।
हतपूर्वस्तत्र दण्डैः लूषितपूर्वोऽपुण्यैः ॥८॥ परुषाणि दुस्तितिक्षाणि अतिगत्य मुनिः पराक्रममाणः। आख्यातनृत्यगीतानि दण्डयुद्धानि मुष्टियुद्धानि ।।६।। प्रथितान् मिथः कथासु समयेशातसुतः विशोकोऽद्राक्षीत् ।
एतानि स उरालानि गच्छति ज्ञातपुत्रः अस्मरणाय ।१०। शब्दार्थ-एगेसि अन्य के लिए । एयं नो सुकरं यह सरल नहीं है कि । अभिवयमाणे-नमस्कार करने वाले से । नाभिभासे भाषण न करे । अपुराणेहिं-पुण्यहीन अनार्यों के द्वारा । तत्थ अनार्यदेश में। दण्डेहि-दण्डों से । हयपुव्वे-पीटे जाने पर । लूसियपुग्वे बाल
आदि नौंचने पर भी समभाव में स्थित रहे ॥८॥ फरसाई-कठोर । दुतितिक्खाई–दुस्सह्य वचनों की। अइअच्च-अवगणना करके । मुणी-वह मुनि भगवान् । पराकममाणे-पराक्रम करते हुए सहन करते थे । आघायनदृगीयाई-कथा, नृत्य गीत आदि सुनकर कुतूहल नहीं पाते । दण्डयुद्धाइं लकड़ियों की मारामारी। मुट्टियुद्धाई–मुष्टियुद्ध देखकर विस्मय नहीं करते ॥६॥ मिहुकहासु समए किसी समय परस्पर कामादि कथा में । गढिए लीन बने हुए को ।णायसुए–ज्ञात पुत्र भगवान् । विसोगे-शोक-हर्ष से रहित होकर । अदक्खु-देखते थे। से णायपुत्ते वह ज्ञातपुत्र भगवान् । एयाई उरालाई इन दुस्सह परीषह-उपसर्गों का । असरणयाए-स्मरण नहीं करते हुए । गच्छति-संयम में विचरण करते थे ॥१०॥
भावार्थ-साधारण जनों के लिए यह अनुष्ठान सरल नहीं है कि कोई अभिवादन करे तो उसके साथ भाषण भी न करे । पुण्यहीन प्राणियों के द्वारा अनार्य देश में जाने पर डंडों से पीटे जाने पर और बाल नौचने पर भी भगवान् समभाव में ही स्थित रहे ||८| दुस्सह कठोर शब्द आदि की परवाह न करते हुए भगवान् संयम में पराक्रम करते रहे । कथा, नृत्य, गीत आदि सुनकर कुतूहल अनुभव न करते। दण्डयुद्ध और मुष्टियुद्ध देखकर विस्मय नहीं पाते । भगवान् ने सब प्रकार के कुतूहल का त्याग कर
For Private And Personal