________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir
पञ्चम अध्ययन द्वितीयोदेशक ]
[ ३६३
कर्मबन्ध है । कर्म-पुद्गलों को इकट्ठा करके धारण करना निघत्त कर्मबन्ध है । बिखरी हुई सूइयों को एक के ऊपर दूसरी आदि के क्रम से जमा देना निघत्त करना कहलाता है। निधत्त अवस्था में कर्मों में दो करण हो सकते हैं - उद्वर्तना और अपवर्तना करण | निघत्त अवस्था में कर्मों में परिवर्तन हो सकता है । कमस्थ बाले और मंद रसवाले अधिकस्थिति वाले और तीव्ररस वाले, इसी तरह अधिकस्थिति वाले कमस्थिति वाले और तीरस वाले मंदरस वाले बन सकते हैं । निधत्तकर्मों को ऐसा मजबूत कर देना कि जिससे वे एक दूसरे से अलग न हो सकें और जिनमें कोई भी करण फेरफार न कर सके इसे निकाचित करना कहते हैं। उदाहरणार्थ एकत्रित सूइयों को अग्नि में तपाकर हथौड़े से ठोक दिया जाय और आपस में इस प्रकार मिला दिया जाय कि वे एक दूसरे से अलग न हो सके। इसी तरह निकाचित कर्मों में किसी प्रकार का संक्रमण नहीं होता है । वे जिस रूप में बाँधे हैं उसी रूप में भोगने पड़ते हैं। इनमें अपवर्तना और उद्वर्तना करण नहीं हो सकता है। एकरोग साध्य होता है और एकरोग असाध्य होता है । असाध्य रोग में औषध का प्रभाव नहीं पड़ता इसी प्रकार निधत्त अवस्था तक तो उपाय हो सकता है परन्तु निकाचित अवस्था में कोई उपाय कारगर नहीं होता । निकाचित कर्म तो जिस प्रकार बांधे हैं उसी रूप में भोगने पड़ते हैं ।
इस प्रकार कर्म के सिद्धान्त को समझ कर रोग आदि संकटों के समय शान्ति से काम लेना चाहिए | व्याकुल चित्त से असातावेदनीय के विपाक रूप दुख को सहन करना चाहिए। यह विचारना भी चाहिए कि कर्मों का फल आगे या पीछे मुझे अवश्य भोगना पड़ेगा ही । भोगे बिना छुटकारा नहीं है। अच्छा हुआ जो मेरा कर्ज यहीं चुक गया । इस प्रकार सनत्कुमार चक्रवर्ती के दृष्टान्त को लक्ष्य में रखकर देह की असारता का चिन्तन करना चाहिए ।
सनत्कुमार चक्रवर्ती अपनी सुन्दरता के लिए बड़े विख्यात थे। स्वर्ग में भी उनकी सुन्दरता की प्रशंसा हुई । स्वर्ग से दो देवता उनको देखने के लिए आये । उन्होंने सनत्कुमार को स्नान करते समय देखा और उनके स्वरूप की सुन्दरता को देखकर आश्चर्यचकित हो गये। वे सनत्कुमार के रूप की प्रशंसा करने लगे। अपनी प्रशंसा सुनकर सनत्कुमार कहने लगे कि आप अभी क्या मेरा रूप देखते हैं, जब मैं वस्त्राभूषणों से अलंकृत होकर राजसिंहासन पर बैठूं उस समय मेरा स्वरूप देखिए । सनत्कुमार के
ग्रह से वे देवता वहाँ ठहरे । यथासमय सनत्कुमारे वस्त्रालंकारों से सुसज्जित होकर एवं पुरुषोचित्त शृङ्गारों से सुशोभित होकर सिंहासन पर बैठे। देवताओं को बुलाया गया । सनत्कुमार चक्रवत्ती का वह स्वरूप देखकर देवों ने सिर हिला दिया । चक्रवर्ती ने बड़े आश्चर्य से पूछा कि मेरे समान सुन्दर और कोई नहीं हैं । आपने भी स्नान करते हुए मुझे देखकर मेरे स्वरूप की तारीफ की और जब मैं उस समय से अधिक शृङ्गारों से सुसज्जित हूँ तब क्या कारण है कि आपने मुझे देखकर तिरस्कार सूचक सिर हिला दिया ? क्या मेरा यह स्वरूप सुन्दर नहीं है ? चक्रवर्ती के प्रश्न के उत्तर में देव ने उत्तर दिया कि राजन् ! हमने पहले जो आपका स्वरूप देखा था वह कुछ और ही था और यह स्वरूप अब कुछ और ही है। पहिलेका स्वरूप सुन्दर और स्वस्थ था इसलिए हमने भी प्रशंसा की थी लेकिन राजन् ! अब यह रूप वैसा नहीं है । यद्यपि उस समय से इस समय आप विशेष शृङ्गारों से सज्जित हैं तदपि आपका स्वास्थ्य अब वैसा नहीं रहा। आपके शरीर में रोग के पुद्गल एकत्रित हो गये हैं । इन्होंने आपके सुन्दर शरीर की स्वस्थता का अपहरण कर लिया है, यही कारण है कि हमने आपके बाहर से सुन्दर एवं सुसज्जित शरीर को देखकर भी सिर हिला दिया ।
देवता के इस उत्तर को सुनकर चक्रवर्ती आश्चर्य में डूब गये । सचमुच उन्हें मालूम होने लगा कि उनके शरीर में रोग उत्पन्न हो गए हैं। वे सोचने लगे कि अहो इस सुन्दर शरीर का यकायक यह भयंकर
For Private And Personal