Book Title: Acharanga Sutram
Author(s): Saubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
Publisher: Jain Sahitya Samiti

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Page 632
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir मेवम अध्ययन प्रथम उद्देशक ] [५८६ अर्थात्-जो अतीत, वर्तमान और आगामी अर्हन्त भगवन्त दीक्षित हुए दीक्षा लेते हैं और दीक्षा लेंगे वे सब धर्मोपकरण युक्त धर्म की देशना करने के लिए एक देवदूष्य लेकर प्रव्रजित होते हैं या होंगे, यह तीर्थ धर्म के लिए अनुधार्मिक व्यवहार है। उक्त व्यवहार के पालन के हेतु भगवान् ने वन शरीर पर रहने दिया लेकिन कदापि उसके उपभोग की भावना नहीं की। भगवान् यावज्जीवन अपनी प्रतिज्ञा का पालन करते रहे । अथवा परीषहउपसर्गों को समभावपूर्वक सहन करते हुए उनके पारगामी हुए। दीदा-धारण के समय धारण किए सुगन्धित वस्त्रों और सुगन्धित देवदूष्य की गन्ध से आकृष्ट होकर भौरे आदि विविध प्राणी आकर भगवान् के शरीर पर चढ़ जाते और डंक मारते। मांस-रुधिर की इच्छा से वे प्राणी भगवान् के शरीर को काटते और दुख पहुँचाते थे। भगवान् समभावपूर्वक सब कष्ट सहन करते रहे। स्थितकल्प मर्यादा समझकर भगवान ने कुछ अधिक तेरह मास तक उस देवदूष्य का त्याग नहीं किया । बाद में उसका परित्याग करके भगवान् सर्वथा अचेल होकर विचरने लगे। जैनशासन में एकान्तवाद को कतई अवकाश नहीं है तो इसमें सचेलता या अचेलखा का एकान्त आग्रह कैसे हो सकता है ? श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्परा को इस ओर उदार दृष्टिकोण से विचार करने की आवश्यकता है। अनेकान्तवाद के प्रवर्तक जैनधर्म में एकान्त आग्रह का होना खटकता है। वह दिन धन्य होगा जब एकान्त श्राग्रह को दूर कर सब जैन बन्धु एक सूत्र में बंधकर जैनशासन की दीप्ति को दमकाएँगे। जैनं जयति शासनम् । अदु पोरिसिं तिरियं भित्तिं चक्खुमासज्ज अन्तसो झायइ । अह चक्खुभीया संहिया ते हन्ता हन्ता बहवे कंदिसु॥१॥ सयहिं वितिमिस्सेहिं इथियो तत्थ से परिनाय । सागारियं न सेवेइ य, से सयं पवेसिया झाइ ॥३॥ जे के इमे अगारत्था मीसीभावं पहाय से झाइ । पुट्ठो वि नाभिभासिंसु गच्छइ नाइवत्तइ अंजू ॥७॥ संस्कृतच्छाया-अथ पौरुषी तिर्यभित्तिं चक्षुरासाद्य अन्तशः ध्यायति। . अथ चतुर्भीताः संहितास्ते हत्वा हत्वा बहवः चक्रन्दुः ।।५।। शयनेषु व्यतिमिश्रेषु स्त्रीः तत्र स परिशाय । सागारिकं न सेवते च स स्वयं प्रवेश्य ध्यायति ॥६॥ ये केचन इमे अगारस्थाः मिश्रीभावं प्रहाय स ध्यायति। पृष्ठोऽपि नाभ्यभाषत गच्छति नातिधर्तते ऋजुः ।।७।। शब्दार्थ-अदुबाद में। पोरिसिं-पुरुष-प्रमाण । तिरियं भित्ति आदि में सँकड़े और आगे विस्तीर्ण मार्ग को। चक्खुमासज-आँख से देखकर । अन्तसो झाइ मार्ग में ध्यान For Private And Personal

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