________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir
प्रथम अध्ययन सप्तमोद्देशक ]
[ ८३.
से बेमि संति संपाइमा पाणा श्रहच्च संपयंति य । परिसं च खलु पुट्ठा एगे संघायमावज्जन्ति, जे तत्थ संघायमावज्जन्ति ते तत्थ परियाविज्जति, जे तत्थ परियाविनंति से तत्थ उद्दायंति (६०)
संस्कृतच्छाया - तद् ब्रवीमि सन्ति संपातिनः प्राणिनः श्राहृत्य संपतन्ति च स्पर्श च खलु स्पृष्टाः के संघातमापद्यन्ते, ये तत्र संघातमापद्यन्ते ते तत्र पर्यापद्यन्ते, ये तत्र पर्यापद्यन्ते ते तत्रापद्रावन्ति ।
भावार्थ- मैं कहता हूँ कि वायुकाय के साथ कई उड़ते हुए प्राणी भी हैं जो वायु के साथ एकत्रित होकर अंदर गिरते हैं और वायु की हिंसा के साथ वे भी पीड़ा पाते हैं, मूर्चित होते हैं और मृत्यु को प्राप्त करते हैं।
एत्थ सत्थं समारभमाणस्स इच्चेते प्रारम्भा परिणाया भवंति । एत्थ सत्थं प्रसमारभमाणस्स इच्चेते प्रारंभा परिणाया भवंति (६१)
संस्कृतच्छाया - अत्र शस्त्रं समारभमाणस्य इत्येते प्रारम्भा अपरिज्ञाताः भवन्ति, अत्र शस्त्र - मसमारभमाणस्य इत्येते आरम्भाः परिज्ञाताः भवन्ति ।
भावार्थ - जो वायुकाय के शस्त्र का समारंभ करता है उसे इन आरम्भ की क्रियाओं का विवेक, नहीं होता है अतः उसे कर्मबन्धन होता है । जो वायुकाय के शस्त्र का समारंभ नहीं करता है उसे आरंभ के भेदों का (विवेक) ज्ञान होता है अतः उसे बन्धन नहीं होता ।
तं परिणाय मेहावी व सयं वाउसत्यं समारंभेजा वरणेहिं वाउसत्थं समारंभावेज्जा, वरणे वाउसत्थं समारंभंते समणुजाणेजा, जस्सेते वाउसत्थसमारंभा परिणाया भवंति से हु मुणी परिणायकम्मे त्ति बेमि (६२)
संस्कृतच्छाया - तत् परिज्ञाय मेधावी नैव स्वयं वायुशस्त्रं समारभेत, नैवान्यैः वायुशस्त्रं समारम्भयेत्; नैवान्यान् वायुशस्त्रं समारभमाणान् समनुजानीयात्। यस्यैते वायुशस्त्रसमारम्भाः परिज्ञाताः भवन्ति स एव मुनि: परिज्ञातकर्मेति ब्रवीमि ।
2
भावार्थ – हिंसा के परिणाम को जानकर बुद्धिमान् स्वयं वायुकाय की हिंसा न करे, न अन्य से करावे और करते हुए अन्य को अच्छा न समझे । जिसको वायुकाय के समारम्भ का दुष्परिणाम ज्ञात होता है और जिसने प्रत्याख्यान परिज्ञा से वायुकाय समारंभ का त्याग कर दिया है वही परिज्ञा (विवेक) सम्पन्न मुनि है ।
For Private And Personal