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द्वितीय अध्ययन तृतीयोद्देशक ]
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भावार्थ-इस प्रकार प्रवृत्ति करते हुए कदाचित् लाभान्तराय कर्म के क्षयोपशम से उसके पास खच के उपरान्त बची हुई प्रचुर सम्पत्ति एकत्रित हो जाती , परन्तु उसको भी किसी समय उसके स्वजन परस्पर बांट लेते हैं, अथवा चोर चुरा ले जाते हैं अथवा राजा लूट लेते हैं, या व्यापारादि में हानि होने से नष्ट हो जाती है अथवा घर में आग लग जाने से जल जाती है। इस प्रकार अनेक मार्गों से वह सम्पत्ति नष्ट हो जाती है।
विवेचन-सम्पत्ति तथा अन्य बाह्य वस्तुओं का संसर्ग क्षणिक है। जो स्वभावतः चंचल है वह कहाँ तक रोकी जा सकती है। आखिर वह नष्ट होने की है। प्राणी बड़े २ भगीरथ प्रयत्नों द्वारा द्रव्योपार्जन करते हैं और उसकी रक्षा के लिए मजबूत से मजबूत तिजोरियों में उसको प्रयत्न पूर्वक रखते हैं। सैकड़ों दरवाजों, तालों और पहरेदारों से रक्षित होने पर भी न जाने यह लक्ष्मी कहाँ से निकल भागती है। सैकड़ों प्रयत्न करने पर भी जो अनित्य है उसे नित्य नहीं बनाया जा सकता। इसी तरह अनित्य और नश्वर सम्पत्ति को तिजोरियों में कैद रखने पर भी स्थायी और नित्य नहीं कर सकते हैं। जब लक्ष्मी जाने लगती है तब यह प्राणी अत्यन्त दग्ध ( जले हुए) हृदय से पश्चात्ताप करता है कि जीवन भर कष्ट उठाकर मैंने इसका संग्रह किया और इसकी हिफाजत की और आज यह मेरे देखते-देखते जा रही है !! हा हन्त!!!
नश्वर पदार्थों में आसक्ति करके प्राणी अपने आप दुःखी बनता है। ये नश्वर पदार्थ तो अपनी कालमर्यादा और स्वभावानुसार नष्ट होवेंगे ही परन्तु आसक्त प्राणी उनमें ममत्व बुद्धि करके अपने साध्य को भूलता है । नतीजा यह होता है कि पदार्थ तो उस आसक्त प्राणी को विलाप करता हुआ छोड़कर अपने पंथ पर प्रयाण कर जाते हैं और वह प्राणी आध्यात्मिक और आर्थिक उभय दृष्टि से हीन बना हुआ दुःख सागर में डूबता है । अत्यन्त कष्टों से उपार्जित सम्पत्ति का, दृष्टि के सामने ही विविध मागों से विनाश होता है। स्वजन विभाग कर लेते हैं, चोर चुरा ले जाते हैं, राजा छीन लेते हैं, अग्नि जला देती है, व्यवसाय में हानि होने से नष्ट हो जाती है। यह अवस्था देखकर उस आसक्त प्राणी का हृदय विदीर्ण हो जाता है, उसकी आँखें आँसू की धारा बहाती हैं । परन्तु यह उस प्राणी की स्वयं की भूल का परिणाम है । नश्वर को नित्य समझ बैठने का दुष्परिणाम है । प्राणी की इसी विपरीत प्रवृत्ति का सूत्रकार निम्न सूत्र में वर्णन करते हैं:
इति से परस्सट्टाए कूराई कम्माई बाले पकुव्वमाणे तेण दुक्खेणं मूढे विपरियासमुवेइ ।
संस्कृतच्छाया-इति स परस्मै अर्थाय कराणि कर्माणि बालः प्रकुर्वाणः तेन दुःखेन मूढो विपर्यासमुपैति ।
शब्दार्थ-इति इस प्रकार । से अर्थलुब्ध प्राणी। परस्सद्वाए-दसरों के लिए। कूराई–हिंसक । कम्माई-कों को। बाले–अज्ञानी । पकुव्वमाणे करता हुा । तेण दुक्खेत उस दुःख से । मूढे मूढ़ प्राणी । विपरियासमुवेइ-विपरीत प्रवृत्ति करता है।
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