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[ आचाराङ्ग-सूत्रम्
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की हिंसा न करते हुए । अपरिग्गहेमाणा = परिग्रह नहीं रखते हुए । सव्वावंति च लोगंसि = समस्त लोक में । नो परिग्गहावंती- निष्परिग्रही हो जाते हैं । पाणेहिं प्राणियों में । दंड - हिंसा को । निहाय = छोड़कर | पावं कम्म = पापकर्म । श्रकुव्वमाणे = नहीं करता हुआ । एस = यह साधक । महं=महान् । श्रगंथे= निर्ग्रन्थ । वियाहिए = कहा गया है । उववायं = उत्पन्न होना । चवणं च = मरण होना । नच्चा = जानकर | जुइमस्स = प्रकाशरूप संयम के | खेय राणे = निष्णात होते हैं। ओए = रागद्वेषरहित, द्वितीय होते हैं ।
भावार्थ - हे जम्बू ! कतिपय साधक मध्यम वय में प्रबुद्ध होकर त्यागमार्ग में पुरुषार्थी होते हैं । बुद्धिमान् साधक ज्ञानीजनों के वचनों को सुनकर उनको धारण करे । आर्यपुरुषों ने “समता में " धम कहा है । इसलिए त्यागी पुरुष भोगों की आसक्ति की इच्छा तक नहीं करते हैं, किसी प्राणी की हिंसा नहीं करते हैं और परिग्रह से दूर रहते हैं । ऐसे व्यक्ति ही सारे लोक में निष्परिग्रही रह सकते हैं. ऐसे व्यक्ति फिर प्राणियों की हिंसा नहीं करते हैं और पापकर्म नहीं करते हुए वे महान् निर्मन्थ कहे जाते हैं । देवलोक में भी जन्म-मरण के दुख को जानकर प्रकाशमय संयम के निष्णात बनकर वे द्वितीय-रागद्वेषरहित हो जाते हैं
विवेचन - सूत्रकार फरमाते हैं कि कतिपय साधक यौवनावस्था में प्रबोध पाकर त्यागमार्ग में पुरुषार्थ करते हैं। मनुष्य की तीन अवस्थाएँ मानी गई हैं - (१) बाल ( २ ) युवा और ( ३ ) वृद्ध । 'इन तीन अवस्थाओं में से युवावस्था ही सब प्रकार के पुरुषार्थों के लिए योग्य अवस्था है। धर्म, अर्थ, . काम और मोक्ष ये चारों पुरुषार्थ युवावस्था में ही भलीभांति सम्पन्न हो सकते हैं । बाल वय में इन्द्रिय, मन, बुद्धि, चित्त आदि का विकास नहीं हुआ रहता है और वह अवस्था अपरिपक्व होती है अतएव वह पुरुषार्थ में उपयोगी नहीं होती। इसी तरह वृद्धावस्था में शक्ति क्षीण हो जाती है, इन्द्रियों और शरीर परवश हो जाता है इसलिए यह अवस्था भी प्रगति के लिए अनुकूल नहीं है। केवल युवावस्था ही ऐसी है जिसमें समुन्नति के सभी साधन प्राप्त होते हैं, शरीर का पूरा संगठन हो जाता है, इन्द्रियाँ और बुद्धि भी पुष्ट हो जाती है तथा जीवन के विकास के लिए उपयोगी साधन-सामग्री भी प्राप्त हो जाती है। युवावस्था में सहज प्राप्त होने वाला उत्साह, उमङ्ग और सौन्दर्य इसके प्रतीक हैं। तात्पर्य यह है कि युवावस्था जीवन- नौका के लिए पतवार के समान है। इसी पर विकास और ह्रास निर्भर है।
युवावस्था 'में जैसे साधन-सामग्री की उपलब्धि होती है उसी तरह उस प्राप्त सामग्री को विपरीत मार्ग में खींचने वाले साधन भी बहुत उपस्थित होते हैं। अधिकांश व्यक्ति विवेकबुद्धि के अभाव के कारण इन साधनों का दुरुपयोग करते हैं। शक्ति का अधिक संग्रह यौवनवय में ही होता है साथ ही साथ शक्ति का अधिक से अधिक दुरुपयोग भी इसी वय में होता है। यदि इस अवस्था में विवेकबुद्धि जागृत होकर काम करने लगे तो सब के सब पुरुषार्थ आसानी से सिद्ध हो जायें । परन्तु इस अवस्था में विवेक का प्राप्त होना बहुत कठिन है । विरल व्यक्ति ही इस अवस्था में अपने विवेकदीप को प्रज्वलित रख सकते हैं। यौवन की आधी में विवेकदीप को बुझने न देना विरल आत्माओं का ही कार्य है । इसलिए सूत्रकार ने “कतिपय साधक” यह पद दिया है। इस अवस्था में विवेकबुद्धि का विकसित होना पूर्व पुरुषार्थ पर भी
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