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अष्टम अध्ययन पञ्चमोद्देशक ]
शब्दार्थ-- जस्सं णं भिक्खुस्स-जिस भिक्षु का । अयं यह । पगप्प आचार हो कि । अहं च खलु=मैं । पडिन्नत्तो= दूसरों के द्वारा सेवा के लिए कहे जाने पर । गिलाण रोगादि से ग्लान होने पर । अपडिन्नत्तेहि मेरे द्वारा नहीं कहे हुए-पर स्वेच्छा से सेवा के लिए तत्पर । अगिलाणेहिं अग्लान । साहम्मिएहिं सहधर्मी साधकों द्वारा । अभिकंख-कर्म निर्जरा की अभिलाषा से । कीरमाणं की हुई। वेयावडियं-सेवा-शुश्रषा। साइस्सामि-स्वीकार करूंगा। अहं वावि खलु-मैं भी। अगिलाणो अग्लान होकर । अपडिन्नत्तो दूसरों के द्वारा नहीं कहा.हुना भी स्वेच्छा से। गिलाणस्स-ग्लान । पडिन्नत्तस्स और सेवा के लिए मेरे द्वरा कहे हुए। साहम्मियस्स= सहधर्मी । अभिकंख कर्मनिर्जरा की इच्छा से । करणाए-उपकार करने के लिए। वेयावडियं= वयावृत्य । कुजा करूँगा । अाहट्ट परिन्नं प्रतिज्ञा लेकर कि। अणुविखस्सामि=मैं दूसरे सहधार्मियों के लिए आहार-अन्वेषण करूँगा । अाहडं च साइस्सामि और दूसरों द्वारा लाया हुआ स्वीकार करूँगा १ । आहट्ट परिनं प्रतिज्ञा ग्रहण करके कि। आणकिखस्स मि दूसरों के लिए आहारादि लाऊँगा । श्राहउंच नो साइस्सामि दूसरों द्वारा लाया हुआ नहीं लगा २। बाहट्ट परि= प्रतिज्ञा करके कि । नो प्राणक्खिस्सामि दूसरों के लिए नहीं लाउँगा । पाहडं च साइस्सामि= पर दूसरों द्वारा लाया हुआ लँगा ३ । आहट्ट परिनं प्रतिज्ञा करके कि । नो प्राण विखस्सामि= न तो लाऊँगा। आहडं च नो साइस्सामि और न लाया हुआ लँगा । एवं इस प्रकार । श्रहाकहियमेव धम्मं यथा प्ररूपित धर्म की। समभिजाणमाणे-सभ्यग आराधना करता हुआ। से वह साधक । संते-शान्त । विरए=विरत । सुसमाहियलेसे-उज्ज्वल लेश्या वाला होकर मरने पसंद करता है परन्तुः प्रतिज्ञा भंग नहीं करता है । तत्थावि वहाँ भी । तस्स-उस साधक का मरण । कालपरियाए-अनशन प्राप्त मरण के समान कहा है । से तत्थवि अंसिकारए यह मरण 'कर्म का क्षय करने वाला है। इच्चेयं यह मरण । विमोहाययणं-निर्मोही द्वारा प्राचीण है। हियं हितकर है। सुहं सुखकर है। खमं=समुचित है। निस्सेसं-कल्याणकारी है-मोक्ष को कारण है । प्राणुगामियं अन्य जन्म में भी इसकी पुण्य-परम्परा चलती है । त्ति बेमि=ऐसा मैं कहता हूँ।
भावार्थ-किसी साधक की यह प्रतिज्ञा होती है कि "मैं रोगों से ग्रस्त होऊँ तो भी मुझे दूसरों को मेरी सेवा करने के लिए कहना नहीं परन्तु ऐसी स्थिति में दूसरे समान धर्म पालने वाले तनदुरस्त श्रमण कर्मनिर्जरा के हेतु से ( निस्वार्थभाव से ) स्वेच्छापूर्वक मेरी सेवाशश्रणा करे तो मुझे उसे स्वीकार करनी चाहिए और यदि मैं स्वस्थ होऊँ तो दूसरे सहधर्मी अस्वस्थ श्रमणों की स्वेच्छापूर्वक निस्वार्थभाव से सेवा करने” । ( ऐसी प्रतिज्ञा वाले साधक अपनी प्रतिज्ञा की पूर्ति के लिए प्राणों की आहुति दे दे परन्तु प्रतिज्ञाभंग न करें ) कोई श्रमण ( इस प्रकार प्रतिज्ञा करें ) कि (१ ) मैं दूसरे श्रमणों के लिए
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