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[ आचाराङ्ग-सूत्रम्
तानुबन्धी क्रोध का क्षय करता है वह मान आदि बहुत-सी प्रकृतियों का क्षय करता है। मोहनीय का · क्षय करते हुए अन्य प्रकृतियों का भी क्षय करना पड़ता है। जैसे मोहनीयकर्म की ६६ क्रोडाक्रोडी सागरोपम, ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय और अन्तराय की २६ क्रोड़ाक्रोड़ी, नाम, गोत्र की १६ क्रोडाक्रोडी सागरोपम स्थिति क्षय हो जाने के बाद और इसमें से भी कुछ स्थिति कम होने के बाद मोहनीयकर्म का क्षय हो सकता है। तात्पर्य यह है कि जो मोहनीयकर्म का क्षय कर देता है वह शेष कर्मप्रकृतियों का भी क्षय कर देता है, जो बहुत कर्मप्रकृतियों का क्षय कर सकता है वही मोहनीय का क्षय कर सकता है। इसमें जो बात क्षय के लिए कही गई है वही उपशम के सम्बन्ध में समझनी चाहिए । उपशमश्रेणी की अपेक्षा से जो एक को उपशान्त करता है वह अनेक को उपशान्त करता है, जो अनेक को उपशान्त करता है वही एक का उपशम करता है यह अर्थ भी समझ लेना चाहिए। जो कषायों को जीतेगा वही मोहनीय को जीतेगा, जो मोहनीय को जीतेगा वही सकल कर्मों पर विजय प्राप्त करेगा । इसलिए कषायविजय और आत्म-विजय करना चाहिए जिससे अप्रमत्तता होगी और अप्रमत्तता से सर्वज्ञता का लाभ होगा।
हे मुमुक्षुओ ! अगर तुम मोक्ष का अखण्ड साम्राज्य चाहते हो और अपना पूर्ण विकास चाहते हो तो अन्तर्दृष्टि प्राप्त करो और अपने आप पर विजय प्राप्त करो यही परम-विजय है ।
दुक्खं लोगस्स जाणित्तावंता लोगस्स संजोगं जंति धीरा महाजाणं, परेण परं जंति नावखंति जीवियं ।
संस्कृतच्छाया – दुःखं लोकस्य ज्ञात्वा वान्त्वा लोकस्य संयोगं यान्ति धीराः महायानं, परेण परं यान्ति नावकाङ्क्षन्ति जीवितम् ।
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शब्दार्थ — लोगस्स – संसार के । दुक्खं दुख को । जाणित्ता=जानकर । लोगस्स=लोक के । संजोगं = संयोग को | वंता छोड़कर | धीरा वीर साधक । महाजाणं = मोक्षमार्ग में । जंति = जाते हैं । परेण परं= उत्तरोत्तर आगे । जंति-जाते हैं । जीवियं असंयमित जीवन की । नावकखंति = इच्छा नहीं करते हैं ।
भावार्थ-संसार के दुखों को जानकर और लोक के ममता आदि संयोगों का त्याग कर वीरवीर साधक सयम मार्ग मोक्षमार्ग में प्रयाण करते हुए उत्तरोत्तर आगे बढ़ते हैं और असंयमित जीवन की अभिलाषा नहीं करते हैं ।
विवेचन - पूर्ववर्ती सूत्र में आत्म-विजय का उपदेश दिया है। आत्म-विजय का अर्थ अपनी वृत्तियों पर विजय पाना है । वृत्तियों पर विजय पाने के लिए अन्तर्दृष्टि होनी चाहिए। जब तक साधक दृष्टि बाह्याभिमुख रहती है तबतक उसके हृदय में आत्मा सम्बन्धी जिज्ञासा उत्पन्न नहीं हो सकती । बाह्य दृष्टि से वह सुख की शोध के लिए प्रयत्न करता है परन्तु मृग तृष्णा के समान वह अपने उद्देश्य में सफल नहीं होता । आखिर संसार की ठोकरें खाने के बाद उसकी अन्तर्दृष्टि खुलती है और बाह्यदृष्टि को विराम मिलता है । बाह्यदृष्टि से प्राणी संसार में सुख मानता है और धन, धान्य, पुत्र, स्त्री और कुटुम्ब की ममता में फँसा रहता है, लेकिन जब अन्तर्दृष्टि खुल जाती है तब वह संसार के दुखों का अनुभव करता
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