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[ आचारा-सूत्रम् आगमों की-शानों की आज्ञा ही सर्वज्ञ की आज्ञा है। उसके अनुसार प्रवृत्ति करनी चाहिए। अपनी बुद्धि को अपूर्णता से शास्त्रों के विषय में यदि किसी प्रकार के विकल्प या तर्क उठते हों तो उनका जिज्ञासा बुद्धि से समाधान ढूंढना चाहिए। “आर्ष संदधीत न तु विघटयेत्' अर्थात्-महर्षियों के वचनों की संगति कर लेनी चाहिए. लेकिन उनका भङ्ग नहीं करना चाहिए । इस सिद्धान्त के अनुसार अपनी जिज्ञासा बुद्धि के द्वारा तर्कों और विकल्पों का शमन करना चाहिए। साधकों में ऐसा भी देखा जाता है कि वे पहिले पहिले तो जिज्ञासा बुद्धि रखते हैं बाद में समाज के बीच उनका स्थान हो जाता है तो वे बाह्यवृत्ति वाले बन जाते हैं। उनकी अन्तरवृत्ति और जिज्ञासा-बुद्धि मन्द हो जाती है और लोकैषणा की भावना बढ़ जाती है । यह साधकों के लिए हानिकारक है। इसलिए सूत्रकार कहते हैं कि मोक्षार्थी और वीर साधकों को सर्व प्रथम यह विचारना चाहिए कि उनका पुरुषार्थ योग्य मार्ग में है या नहीं ? अगर विचार करते हुए यह प्रतीति हो कि उनका पुरुषार्थ कामना से प्रेरित है तो उनका कर्त्तव्य हो जाता है कि वे कामना का त्याग करें और वीतराग की आज्ञा में निष्काम होकर पुरुषार्थ करें। उसके लिए सतत जागृति की आव. श्यकता है।
.... उड्ढं सोया अहे सोया तिरियं सोया वियाहिया, एस सोया वि अक्खाया जेहिं संगं ति पासहा । श्रावटुं तु पेहाए इत्थ विरमिज वेयवी, विणइत्तु सोयं निक्खम्म एस महं अकम्मा जाणइ पासइ पडिलेहाए नावकखइ इह श्रागइं गई परिन्नाय, अचेइ जाइमरणस्स वट्टमग्गं विक्खायरए ।
संस्कृतच्छाया-उज़ स्रोतासि, अधः स्रोतासि, तिर्यक् स्रोतांसि व्याहितानि, एतानि स्रोतांसि व्याख्यातानि, यः सङ्गमिति पश्यत । भावते तु, उत्प्रेक्ष्य अत्र विरमेद् वेदवित्, विनेतुं स्रोतः निष्कम्य एषः महान् भका जानाति पश्यति, प्रत्युपेक्ष्य नाकाङ्क्षति इह आगति गति च परिज्ञाय अत्यति जातिमरणस्य वर्त्म (माग) व्याख्यातरतः ।
शब्दार्थ-उड्ढं ऊपर । सोया कर्म आने के द्वार। अहे नीचे । सोया कर्म के द्वार । तिरियं-ति दिशा में । सोया कर्म के द्वार । वियाहिए रहे हुए हैं । एए=ये। सोया= प्रवाह के समान होने से स्रोत । वि अक्खाया-कहे गये हैं। जेहिं जिनके द्वारा । संगं ति= प्राणियों की आसक्ति होती है-या कर्मसंग होता है यह । पासहा देखो। आवटुं कर्मवन्ध के चक्र को । तु=पुनः । पेहाए देखकर । वेयवी-आगम का ज्ञाता । इत्थ कर्मबन्ध से। विरमिजा दूर रहे। सोयं-कर्मास्रव के प्रवाह को । विणइत्तु बंद करने के लिए। निक्खम्म प्रव्रज्या लेकर । एस महं-जो महापुरुष । अकम्मा घातिकम से रहित होकर । जाणइ-सब जानता है। पासह सब देखता है। पडिलेहाए परमार्थ का विचार करके । नावकंखइ-पूजादि की अभिलाषा नहीं करता है । इह-संसार के । आगई गई-आगति को, गति को । परिभाय जानकर ।
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