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[आचाराग-सूत्रम वस्तुतः लोहे की शृङ्खलाओं को तोड़ना आसान है परन्तु स्नेह के कच्चे धागे को तोड़ना अत्यधिक कठिन है । तत्त्वदृष्टि से विचारा जाय तो यह स्नेह का पाश ही पाप का मूल है । अज्ञानी प्राणी अपने पुत्र, स्त्री, माता-पिता आदि कुटुम्बियों के, धन के, विषयसुखों के और शरीर के स्नेह के कारण ही जीवहिंसादि
आरम्भ करते हैं और विविध प्रकार के छल-कपट द्वारा अन्य प्राणियों को दुखी करके परमार्थतः स्वयं दुखी बनते हैं। कुटुम्बियों और धन-धाम का स्नेह पाप का मूल है अतएव इसके त्याग करने का सदा ध्यान रखना चाहिए। यह स्नेह हृदय के ऐसे अन्तरभाग में छिपा हुआ रहता है कि जरा सा मौका पाकर तुरन्त अंकुरित हो जाता है । अतः त्यागियों को सदैव इससे सावधान रहना चाहिए। बड़े-बड़े ऋषिमहर्षि और त्यागी पुरुष इस स्नेह के कारण अपनी साधना से पतित हो गये हैं। अतः संयमियों को स्नेह के आकर्षक जाल से सदा दूर रहना चाहिए।
सामान्यरूप से त्यागी-जन अपने कुटुम्ब और धन-वैभव के स्नेह को ठुकरा कर ही त्याग-मार्ग ( दीक्षा) अङ्गीकार करते हैं फिर सूत्रकार पुनः स्नेह के त्याग का उपदेश फरमाते हैं इसका कोई विशेष प्रयोजन होना चाहिए। वह प्रयोजन यह है कि यद्यपि कुटुम्बियों और धन का मोह छूटता है तभी दीक्षा अङ्गीकार की जाती है तदपि दीक्षा के पश्चात् भी पूर्वसंयोगों के स्मरण से स्नेह का उद्भव हो जाता है। उसका निवारण करने के लिए सूत्रकार उपदेश फरमाते हैं अथवा कुटुम्ब का त्याग करने के पश्चात् भी संयमी अवस्था में अनेक गृहस्थों के सम्पर्क में आना पड़ता है। अधिक सम्पर्क के कारण गृहस्थों के साथ स्नेह-सम्बन्ध का बँध जाना बिल्कुल स्वाभाविक है । अतएव सूत्रकार विशेष रूप से यह प्रतिपादन करते हैं कि त्यागियों को गृहस्थ के स्नेह-पाश में कदापि न बँधना चाहिए । गृहस्थों के स्नेह में पड़ जाने पर संयम की निर्मल आराधना दुष्कर होती है क्योंकि त्यागी और गृहस्थ की दिशाएँ बिल्कुल विपरीत हैं। विपरीत दिशा में प्रवृत्ति करने वालों का संसर्ग भी विपरीत दिशा में ले जाने वाला होता है। त्यागी का जीवन अहिंसक होता है और गृहस्थ का जीवन जीवहिंसादि प्रारम्भरूप कीचड़ से मलिन होता है। त्यागी विषयसुखों से एकान्त पराङ्मुख होता है जबकि गृहस्थ इसलोक और परलोक में विषयसुखों की झंखना करता रहता है । तात्पर्य यह है कि त्यागी और असंयमी का मार्ग एक दूसरे से विपरीत है इस वास्ते विपरीत दिशा में प्रवृत्ति करने वालों के साथ स्नेह-सम्बन्ध रखना अपने सही लक्ष्य से भ्रष्ट होना है। यह जानकर त्यागियों को गृहस्थों के स्नेह में और अन्य लट-पट में नहीं फंसना चाहिए।
इसके साथ ही सूत्रकार यह फरमाते हैं कि कामभोगों की प्राप्ति से सुख मिलता है इस मिथ्या कल्पना के कारण असंयमी प्राणी कामभोगों को प्राप्त करने की लालसा रखते हैं और उसी लालसा से बाह्य क्रियाकाण्ड करते हैं और स्वर्ग में विशेष सुख मिलेगा यह आशा रखते हैं परन्तु यह उनकी दुराशा मात्र है । इस प्रकार की लालसा से और प्रारम्भ परिग्रहादि से वे कमों का उपार्जन करते हैं और उनसे लिप्त होकर पुनः पुनः संसाररूपी चक्र में अरघट्ट-घटीयंत्र-न्याय से परिभ्रमण करते रहते हैं और अनन्त काल तक जन्म-मरण की परम्परा बढ़ाते हैं।
अवि से हासमासज्ज हंता णंदीति मन्नइ, अलं बालस्स संगणं वेरं वड्ढेइ अप्पणो ।
संस्कृतच्छाया-अपि स हास्यमासाद्य हंता नंदीति मन्यते, प्रलं बालस्य संगेन वैरं ईयति मात्मनः।
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