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द्वितीय अध्ययन चतुर्थोदेशक ]
बताया गया है। जिस धनादि सामग्री को प्राणी भोगोपभोग का प्रधान कारण समझता है वह सामग्री भगोपभोग-जन्य कल्पित सुख दे भी सकती है और नहीं भी दे सकती है । "भोगोपभोग का मुख्य साधन धन है" ऐसा मानकर ही प्राणी धन कमाने में रात-दिन एक करता है, खून का पसीना करता है और विषम संकटों को झेलता है लेकिन ऐसी प्रवृत्ति करने पर और लाभान्तराय के क्षयोपशम से जब द्रव्य की प्राप्ति हो जाती है तब वह यह बात भूल जाता है और उस धन से भोगोपभोग नहीं करता हुआ मात्र उसका संग्रह करता जाता है। भोगोपभोग का उद्देश्य चला जाता है और संग्रह का लोभ जागृत हो जाता है । जहाँ संग्रहवृत्ति आ जाती है वहाँ भोगोपभोग नहीं होता है । मात्र वही व्यक्ति प्राप्त सामग्री का उपभोग कर सकता है जिसमें संग्रह की भावना नहीं है। अन्य कोई नहीं । उदाहरण की तौर पर मम्मण सेठ को ही लीजिए । उसके पास करोड़ों की सम्पत्ति थी। जल और स्थल में उसका व्यापार था और उसको बहुत अाय थी परन्तु वह सम्पत्ति का उपभोग नहीं कर सका । वह न खा-पी सका, न शुभकार्यों में उसे व्यय कर सका और न उससे कोई लाभ ही उठा सका । मात्र वह सम्पत्ति का रखवाला बना रहा, मालिक नहीं । जो रक्षक होता है वह उस सम्पत्ति का मालिक नहीं कहा जा सकता। जैसे सरकारी कोष के अथवा बैंकों के कोषाध्यक्ष उसके मालिक नहीं कहे जा सकते क्योंकि वे उसमें से पाई भी अपने लिए लेने के अधिकारी नहीं हो होते । उसी प्रकार जो द्रव्य का उपयोग नहीं करते वे भी मात्र उसके कोषाध्यक्ष कहे जा सकते हैं। सारांश यह है कि जहाँ संग्रहवृत्ति का प्राधान्य है वहाँ प्राप्त सम्पत्ति का मोगोपमोग नहीं हो सकता।
अगर यह मान भी लिया जावे कि प्राप्त सम्पत्ति का भोगोपभोग हो सकता है तो भी उस भोगोपभोग में सुख की कल्पना करना केवल भ्रान्ति है। भोगों के क्षणिक सुख के गर्भ में अनन्त दुख छिपा हुआ है । यह अनुभव करते हुए भी प्राणी मोह रूपी आँधी से अंध होकर इस सरल और सीधी बात को नहीं समझते हैं यही विश्व की विचित्रता है !!
___ "जेण सिया तेण णो सिया” इसका ऐसा अर्थ भी किया जा सकता है कि जिन किन्हीं हेतुओं से कर्मबन्धन होता हो वैसी प्रवृत्ति नहीं करनी चाहिए । इस सूत्र के पूर्व-सूत्र में यह बताया गया है कि आशा
और संकल्पों का त्याग करना चाहिए । ये संकल्प और आशाएँ कर्मबन्धन के हेतु हैं अतः इस सूत्र में यह उपदेश दिया गया है कि जिन २ हेतुओं से कर्मबन्धन हों उनमें प्रवृत्ति नहीं करनी चाहिए । उक्त अर्थ भी उचित ही है।
थीभि लोए पव्वहिए, ते भो ! वयंति एयाइं श्राययणाई, से दुक्खाए, मोहाए, माराए, नरगाए, नरगतिरिक्खाए।
संस्कृतच्छाया-स्त्रीभिः लोकः प्रव्यथितः, ते भो ! वदन्ति एतानि आयतनानि, एतद् दुःखाय, मोहाय, माराय; नरकाय, नरकतिर्यक्योन्यर्थम् ।
शब्दार्थ-लोए संसार । थीभि=स्त्रियों के हावभाव के द्वारा । पव्वहिए दुखी होता है । तेचे कामी । वयंति कहते हैं कि । भो हे मनुष्यों । एयाई ये स्त्रियाँ । आययणाई-उपमोग. के स्थान हैं । से यह उनका कथन । दुक्खाए-दुख के लिए । मोहाए अज्ञान के लिए।
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