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अष्टम अध्ययन तृतीयोदेशक
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मुनि के इस प्रकार के उत्तर को सुनकर यदि वह गृहस्थ यों कहे कि-यदि आपकी बात सत्य है तो आप अपनी ठण्ढ दूर करने के लिए अग्नि का सेवन क्यों नहीं करते हैं ? क्यों न अग्नि से शरीर को तपाते हैं ? तब मुनि साधक उसे समझावे कि जैन श्रमण के लिए अग्नि जलाना या उसका सेवन करना कल्पनीय नहीं है। इतना ही नहीं किसी दूसरे को वचन द्वारा ऐसा कहना भी जैनश्रमण का प्राचार नहीं है।
मान लीजिए कि वह गृहस्थ मुनि के इस समाधान को सुनकर भक्तिनिर्भर होकर स्वयं अग्नि जलाकर मुनि के शरीर को तपाना चाहे तो मुनि उसके अभिप्राय को समझ कर प्रथम ही प्रेमपूर्वक उसे ऐसा न करने समझावे । उसे यों कहे कि "मेरे निमित्त ऐसा करना योग्य नहीं है । जैनश्रमण स्वयं किसी को दण्डित नहीं करता है और साथ ही अपने निमित्त किसी दूसरे को कष्ट में डालना भी नहीं चाहता है। आपको तो अपनी भावना से फल मिल ही चुका है अब ऐसी क्रिया करना योग्य नहीं है"। इस प्रकार मुनि उस गृहस्थ को मीठे शब्दों द्वारा समझा दे । साधक स्वयं उसके मीठे शब्दों में प्रभावित होकर अपने आचार को न छोड़ दे।
तात्पर्य यह है कि साधक का जीवन सर्वथा स्वाभाविक होता है। वह न तो एकदम आवेश में आ जाता है और प्रलोभन में ही फंस जाता है। अपनी स्वाभाविकता के कारण वह न तो प्रतिकूल संयोगों से चिढ़ जाता है और न अनुकूल संयोगों में फंस जाता है । समतायोगी साधक की दृष्टि बाह्य न होकर आन्तरिक होती है इसलिए उसके चित्त की शान्ति बाह्य साधनों से भंग नहीं हो जाती है । इसकी चित्तशान्ति के जलाशय को बाह्य वचनरूपी कङ्कर भङ्ग नहीं कर सकते । ऐसा साधक उपादान की शुद्धि करता हुआ आत्मस्वरूप में स्थिर होता जाता है। यही चरम साध्य है जिसे वह प्राप्त कर लेता है।
यौवन सभी पुरुषार्थों की सिद्धि के लिए प्रयत्न करने का सबसे सुन्दर सुअवसर है। यौवन षय ही जीवन के विकास और पतन की अवस्था है। इस अवस्था में विवेक द्वारा किया हुश्रा वृत्तिसंयम विकास का कारण है और असंयम-उच्छलता पतन का कारण है। संयम बिना समता और विश्वबन्धुत्व असंभव है।
समता ही धर्म है । निस्वार्थता, अर्पणता और प्रेम ये तीन समता के स्तम्भ हैं । इन पर ह धर्म का प्रासाद टिका हुआ है । समताधर्म ही मुक्ति का मूल है ।
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इति तृतीयोद्देशकः
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