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[ आचाराङ्ग-सूत्रम्
विवेचन-सम्यक्त्व और निरवद्य तप का वर्णन कर दिया गया है। अब सूत्रकार इस सूत्र में उसका फल दिखलाते हैं। साथ ही इस सूत्र में सत्य की कड़कता और सत्य के पीछे लगे रहने की दृढ़ता भी बताते हैं। ___संसार में भूत, वर्तमान और भविष्य काल में जो भी कर्मविदारण करने में वीर महापुरुष हुए हैं वे सभी सत्य-सम्यक्त्त्व से लगे रहे है । सत्य की प्राप्ति में ही उन्होंने अपना जीवन बिताया है। सत्य की शोध और सत्य की आराधना में ही उन्होंने पुरुषार्थ किया है। उन्हें जहाँ कहीं भी जिस रूप में सत्य मिला है वहां से उन्होंने उसे ग्रहण किया है । सत्य सर्व व्यापक है। उसका क्षेत्र अनन्त है। सत्याग्रही सभी जगह से सत्य पाने की कोशिश करता है उसे कोई भी संकुचित पक्ष बाँध नहीं सकता है। वह पूर्व पश्चिम, उत्तर अथवा दक्षिण यों सभी दिशाओं में रह कर भी सत्य में संलग्न रहता है। इसका अर्थ यह है कि जीवन की प्रत्येक स्थिति और प्रत्येक संयोग में सत्य साध्य किया जा सकता है । जिन्होंने सत्य को बराबर समझा है वे चाहे जैसे वातावरण में रह कर भी सत्य का पालन कर सकते हैं। सत्य की रक्षा के लिए वे अपना सर्वस्व होम देने के लिए तत्पर रहते हैं। प्राणों का मोह उन्हें सत्य से विचलित नहीं कर सकता है। ऐसे सत्य-साधक हँसते-हँसते कष्टों और विपत्तियों को सहन कर लेते हैं। लेकिन सत्य को नहीं छोड़ते । अरणक श्रावक की दृढ़ता उदाहरण के तौर पर विचारणीय एवं अनुकरणीय है। उसने सब कुछ सहन करने पर भी, देवता द्वारा विचलित करने के अनेकविध उपायों के किए जाने पर भी, प्राणान्त कष्ट दिये जाने पर भी अपना सत्य धर्म नहीं छोड़ा । संक्षिप्त कथानक इस प्रकार है ।
एक बार अरणक श्रावक की इच्छा व्यापार के लिए समुद्र को पार करके विदेश में जाने की हुई । उसने शहर में ढिंढोरा पिटवाया कि वह जहाज द्वारा परदेश में व्यापार के लिए जा रहा है जिस किसी की चलने की इच्छा हो वह जहाज पर आ सकता है। सब के खानपान की व्यवस्था वह करेगा और जिसके पास द्रव्य न होगा उसे व्यापारार्थ द्रव्य भी दिया जाएगा। इस घोषणा को सुनकर बहुत से लोग साथ चलने को आ गये । अरणक के इस दिढोरे पर विचार करने से मालूम होता है कि पहले के श्रावकों में अन्य जनों को अपनाने, उन्हें सहायता पहुँचाने और उन्हें साथ लेने की कितनी उदार भावना थी । इस तरफ वर्तमान श्रावकों का बिल्कुल लक्ष्य नहीं है अतएव उन पूर्वजों के चरित्र में से यह शिक्षा ग्रहण करनी चाहिए।
यात्रा का निश्चित दिवस आ पहुँचा । सभी लोग जहाज पर चढ़ गए । नियत समय पर जहाज रवाना हुआ । चलते चलते जब जहाज बीच समुद्र में आया तब सहसा भयंकर तूफान आया । मेघगर्जना होने लगी। विजलियां कड़कने लगी । समुद्र एक दम क्षुब्ध हो गया । जहाज डोलने लगा। गेंद के समान वह ऊँचा और नीचा होने लगा । जहाज के सभी मनुष्य घबराने लगे और वे ईश्वर से प्रार्थना करने लगे। इसी समय आकाश में देव-वाणी हुई कि यह सब उत्पात मैंने किये हैं। अगर अरणक श्रावक अपना सत्य धर्म छोड़ दे तो अभी शान्ति कर देता हूँ। यह सुनकर सभी लोग अरणक की ओर देखने लगे। अरणक ने जवाब दिया कि चाहे जैसे विपत्ति के पहाड़ टूट पड़े लेकिन अरणक सत्य धर्म को नहीं छोड़ सकता । चाहे सूर्य तपना छोड़ दे, चन्द्रमा शीतलता छोड़ दे, समुद्र मर्यादा तोड़ दे, अग्नि शीतल हो जाय, पानी में आग लग जाय लेकिन अरणक सत्य धर्म को नहीं छोड़ सकता। अरणक के ऐसे दृढ़ता पूर्ण वचनों को सुनकर देव फिर बोला-हे अरणक ! तुम हृदय से भले ही सत्य धर्म को सत्य समझो लेकिन जिह्वा मात्र से कह दो कि धर्म झूठा है। मैं अभी शान्ति कर देता हूँ। नहीं तो यह उत्पात शान्त होने
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