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द्वितीय अध्ययन द्वितीय उद्देशक ]
[१०७ प्रासक्त हैं इसलिए न तो इस पार रहते हैं और न उस पार ही पहुंच सकते हैं। जैसे महानदी के पूर में पड़ा हुश्रा प्राणी न तो इस पार तीर पर आ सकता है न उस पार पहुँच सकता है उसी प्रकार किसी निमित्त से स्त्री पुत्र, गृह, धन-धान्यादि वैभव को त्याग कर, अकिंचनता की प्रतिज्ञा लेकर इस पार से-गृहस्थ दशा से निकल जाता है, तो न इस पार का रहता है अर्थात् न गृहस्थ रहता है क्योंकि मुनि का वेश है और न पार पाता है अर्थात् न मुनि ही होता है। क्योंकि यथोक्त मुनि की क्रियाएँ नहीं करता है अतः सफल मुनि नहीं हो सकता है । तात्पर्य यह है कि दोनों तरफ से भ्रष्ट होकर त्रिशंकु की तरह मध्य में ही लटकता है और दुःख में डूबा रहता है । न तो गृहस्थ रहता है और न प्रवजित ही रहता है । कहा भी है
इन्द्रियाण न गुप्तानि, लालितानि न चेच्छया।
मानुष्यं दुर्लभं प्राप्य न भुक्तं नापि शोषितं ॥ अर्थात्-ऐसी उभय भ्रष्टदशा में न तो इन्द्रिय दमन होता है और न इन्द्रिय का पोषण होता है। न इस शरीर का भोग ही होता है और न तप के द्वारा शोषित होता है। कितनी दयनीय स्थिति ! जो अप्रशस्त रति से निवृत्ति होते हैं और प्रशस्त रति में लीन होते हैं, वे कैसे होते हैं सो बताते हैं:
विमुत्ता हु ते जणा जे जणा पारगामिणो, लोभमलोभेण दुग्छमाणे लद्धे कामे नाभिगाहइ। 'विणावि लोभं निक्खम्म एस अकम्मे जाणति पासति । पडिलेहाए णावकंखति एस प्रणगारे त्ति वुच्चइ।।
संस्कृतच्छाया-विमुक्तास्ते जना ये जनाः पारगामिनः । लोभमलोभेन जुगुप्समानो लब्धान् कामान् नाभिगाहते । विनापि लोभं निष्कम्य एष अकर्मा जानाति पश्यति । प्रत्युपेक्षणया नावकाङ्क्षति एष अनगार इत्युच्यते । . शब्दार्थ-विमुत्ता चे ही मुक्त हैं। हु=अवधारण में। ते जणा=चे मनुष्य । जे जणा= जो व्यक्ति । पारगामिणोजन दर्शन चारित्र के पारंगत हैं। लोभमलोभेण-लोभ को निर्लोभ से। दुगंछमाणे त्यागते हुए। लद्ध कामे प्राप्त कामभोगों को। नाभिगाहइ-नहीं चाहता है । विणाविलोभ-लोभ के बिना । निक्खम्म जो प्रव्रज्या लेता है। एस-वह । अकम्मे कर्म रहित होकर । जाणति=सर्वज्ञ बनता है । पासति-सर्वदर्शी होता है । पडिलेहाए यह विचार कर । नावकखति= जो लोभ को नहीं चाहता है। एस-वह । अणगारोत्ति-साधु अनगार । वुच्चइ कहा गया है।
भावार्थ-वास्तव में वे मुक्त ही पुरुष हैं जो ज्ञान, दर्शन और चारित्र के पारगामी हैं, जो सतत संयम का पालन करते हैं। तथा नो निर्लोभवृत्ति से लोभ को जीतकर प्राप्त कामभोगों की इच्छा नहीं करते हैं और प्रथम ही लोभ का त्याग कर जो त्यागी बनते हैं वे पुरुष कर्म से रहित होकर सर्वज्ञ और सर्वदर्शी बनते हैं। ऐसा विचार कर जो लोभ की इच्छा नहीं करते हैं वे ही सच्चे अनगार कहलाते हैं।
१ विणइत्त ।
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