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उपधानश्रुताख्य नवम अध्ययन - तृतीय उद्देशकः( अनुपम सहिष्णुता )
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गत दो उद्देशकों में श्रमण भगवान् महावीर के पादविहार और सम-विषम प्रवासस्थानों का वर्णन किया गया है। संयमी साधक के साधना-मार्ग में पल-पल पर और पद-पद पर परीषह उपसर्ग ते ही रहते हैं । साधना का मार्ग अति विषम और विकट है। इस कण्टकाकीर्ण मार्ग पर चलने के लिए अखूट धैर्य, कष्ट-सहिष्णुता और मानसिक दृढ़ता की आवश्यकता होती है। संकट और प्रलोभनों से विचलित न होने वाला साधक ही इस मार्ग पर सफलतापूर्वक प्रयाण कर सकता है। श्रमण भगवान् महावीर ने भयंकर संकटों को सहन किया और अपने दृढ़ आत्मबल के द्वारा आर्य-अनार्य क्षेत्रों में विचर कर साधना में सफलता प्राप्त की। अनार्य क्षेत्रों में विचरते हुए भगवान् को कैसे २ कष्टों का सामना करना पड़ा और वे उन कष्टों में भी कैसे चट्टान की तरह दृढ़ एवं स्थिर रहे यह इस उद्देशक में बताया है—
तसे सीयफासे य उफासे य दंसमसगे य ।
हियास सया समिए फासाई विरूवरूवाई || १ || अह दुच्चर लाढमचारी वज्जभूमिं च सुग्भभूमिं च । पंतं सिजं सेविंसु श्रासणगाणि चैव पंताणि || २ || लाहिं तस्सुवस्सग्गा बहवे जाणवया लूसिंसु । ग्रह लूहदेसिए भत्ते कुक्कुरा तत्थ हिंसिंसु निवइंसु || ३ || पेज निवारेइ लूस सुपए दसमाये । छुच्छुकारिति श्राहंसु समणं कुक्कुरा दसंतु त्ति ॥४॥
संस्कृतच्छाया - तृणस्पर्शान् शीतस्पर्शांश्च तेजःस्पर्शांश्च दंशमशकांश्च । अध्यासयति सदा समितः स्पर्शान् विरूपरूपान् ||१|| अथ दुश्चरलाढं चीर्णवान् वज्रभूमित्र शुभ्रभूमिव । प्रान्तां शय्यां सेवितवान् आसनानि चैव प्रान्तानि ||२|| लाढेषु तस्योपसर्गाः बहवो जानपदाः लूषितवन्तः । अथ रूक्षदेश्यं भक्तं कुर्कुरास्तत्र जिहिंसुः निपेतुः ||३||
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