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[आचाराङ्ग-सूत्रम्
विवेचन-प्रस्तुत सूत्र में वासना और लालसा का त्याग करने के लिए कहा गया है। पूर्ववर्ती सूत्रों में निष्परिग्रही बनने के लिए पदार्थ-त्याग की आवश्यकता है और त्यागी बनने के पीछे भी सतत सावधानी रखने की आवश्यकता है अन्यथा पुनः पतन की सम्भावना रहती है-यह प्रतिपादित किया गया है। त्यागमार्ग अंगीकार करने के बाद भी कई साधक पुनः पतित हो जाते हैं यह पहिले के सूत्र में कहा गया है। यहाँ अब कारण बताते हैं कि क्योंकर साधक साधना से पतित हो जाते हैं ?
सूत्रकार फरमाते हैं कि प्रव्रज्या अंगीकार करने के पश्चात् भी सतत सावधानी की आवश्यकता होती है। साधक यह समझे कि प्रव्रज्या अंगीकार करने से ही उसका काम समाप्त नहीं हो जाता वरन् उसकी साधना का प्रारम्भ होता है । कई साधक यह समझते हैं कि हमने तो चारित्र स्वीकार कर लिया है अब हम सभी पापों से मुक्त हो गए और कृतार्थ हो गये। ऐसा समझ कर वे संयम में असावधान बनते हैं जिससे उनकी वृत्तियां पुनः जोर पकड़ लेती हैं और वे उनको संयम से बाहर खींच ले जाती हैं। इसलिए सूत्रकार फरमाते हैं कि जो साधक तीर्थंकर देव के उपदेशानुसार प्रवृत्ति करना चाहता है, जो सदसत् के विवेक से युक्त है और राग-द्वेषरहित-अनासक्त है वह रात्रि के प्रथम और अन्तिम प्रहर में
आत्मचिन्तन करे और अपने कार्यों का अवलोकन करे । अपने चारित्र के सम्बन्ध में सूक्ष्मदृष्टि से विचार करे । ऐसा कहकर सूत्रकार सतत जागृत रहने का उपदेश करते हैं। बहुत बार निरासक्त और विवेकी साधक भी गाफिल हो जाते हैं क्योंकि राग-द्वेष का बीज अभी साधनावस्था में बिल्कुल नहीं जल गया होता है। अतएव प्रत्येक साधक को अपनी साधनावस्था में सतत जागृत रहना चाहिए । रात्रि के प्रथम
और अन्तिम प्रहर में आत्मचिन्तन करने का सूत्रकार ने फरमाया है। इसी के अनुसार प्रतिक्रमण क्रिया करने की परिपाटी प्रचलित है। इससे यह समझा जा सकता है कि प्रतिक्रमण क्रिया का कितना अधिक महत्त्व है । वह साधक को-चाहे गृहस्थ हो या साधु-सतत जागृत रहने का संदेश देती है। प्रतिक्रमण जीवन की शुद्धि एवं जागृति का सर्वोत्कृष्ट साधन है । लेकिन प्रतिक्रमण के रहस्य को न समझने के कारण यह परिपाटी केवल परिपाटी रूप रह गयी है। इसका उच्च और उदार श्राशय निकल गया है यह शोचनीय है। प्रत्येक मुमुनु को प्रतिक्रमण की क्रिया का रहस्य समझना चाहिए और उसे अपने जीवन के अवलोकन और परिमार्जन के लिए अवश्यमेव करना चाहिए।
___ यहाँ पर रात्रि के प्रथम और अन्तिम प्रहर में यत्नशील-उपयोगमय रहने का कहा गया है इसका अर्थ यह नहीं कि अन्य समय यत्नशील न रहना चाहिए । बल्कि इसका अर्थ यह है कि दिवस और रात्रि का प्रत्येक क्षण जागृतिमय होकर बिताना चाहिए और रात्रि के प्रथम और अन्तिम प्रहर में रात्रि एवं दिवस के अपने सम्पूर्ण कार्यों और प्रवृत्तियों की विशेषरूप से समीक्षा करनी चाहिए। आज दिन में अथवा रात्रि में मैंने क्या क्या प्रवृत्तियाँ कीं। वे प्रवृत्तियां मेरे संयमी जीवन के अनुकूल हैं या नहीं? उनसे मेरा कितना आत्मिक विकास हुआ ? कहीं मेरी प्रवृत्तियां ऐसी तो न रहीं कि जिनसे आत्मविकास में बाधा पहुंचे ? कहीं मैं वृत्तियों के आवेश में तो नहीं पड़ गया ? इत्यादि बातों का विचार करते हुए साधक को आत्म-दर्शन करना चाहिए। यह आत्मावलोकन करने के लिए रात्रि का प्रथम और अन्तिम प्रहर में विशेषतः चिन्तनशील एवं उपयोगमय रहने का सूत्रकार ने निर्देश किया है। वैसे तो संयमी की प्रत्येक क्रिया उपयोगमय ही होनी चाहिए।
सूत्रकार ने यहाँ साधक के तीन विशेषण कहे हैं-आणाकंखी, पंडिए, अणिहे । ये मनन करने योग्य हैं। प्रथम विशेषण में यह कहा है कि जो तीर्थंकर देव की आज्ञानुसार चलने की इच्छा रखता है
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