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पञ्चम अध्ययन पञ्चमोदेशक]
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परस्पर भिन्न होते हैं। जैसे सुथार कुठार ( कुल्हाड़ी) से काटता है इस वाक्य में सुथाररूप कर्त्ता और कुठाररूप करण भिन्न-भिन्न मालूम होते हैं । ज्ञान और आत्मा में भी यह सम्बन्ध है अतएव वे भिन्न-भिन्न ही होने चाहिए।
समाधान-जहाँ कर्तृकरण भाव सम्बन्ध है वहाँ भिन्नता ही होती है ऐसा कोई नियम नहीं है। एक ही वस्तु में कर्तृकरण भाव देखा जाता है। जैसे देवदत्त अपने आपको अपनी आत्मा से जानता है । यहाँ एक ही देवदत्त कर्ता भी है और करण भी है । साँप अपने आपको अपने द्वारा लपेटता है। यहाँ लपेटने वाला भी सर्प है, लपेटा जाने वाला भी सर्प है और करण भी सर्प है। इस तरह एक ही पदार्थ से कर्तृकरण भाव सम्बन्ध हो सकता है। अतएव ज्ञान और प्रात्मा की अभिन्नता में कोई दोष नहीं है। ज्ञान ही श्रात्मा का स्वरूप है यह सिद्ध हुआ।
ज्ञान स्वरूप से ही श्रात्मा की प्रतीत होती है । जो ज्ञाता है वह आत्मा ही है । अन्य कोई ज्ञाता नहीं । ज्ञान रूप असाधारण गुण ही आत्मा को सिद्ध करता है । आत्मा ज्ञानमय है इसलिए वह ज्ञाता कहलाता है । इस सम्बन्ध को जो जानता है वही यथार्थ आत्मवादी है । उसका ही संयम-अनुष्ठान सम्यग् कहा गया है। सूत्र में आया हुआ "विज्ञाता" शब्द मननीय है । विज्ञान का अर्थ प्रायः भौतिक ज्ञान से लिया जाता है लेकिन यहाँ यह अर्थ नहीं है । विज्ञान शब्द का यौगिक अर्थ है--वि याने विशेष, ज्ञान अर्थात् जानना । अर्थात्-ऊपरी रूप से जो मालूम होता है उससे विशेष-गहराई से जानना विज्ञान कहलाता है। वस्तु को जानना विज्ञान नहीं है लेकिन वस्तु के स्वरूप को-धर्म को-जानना विज्ञान है। स्वरूप-ज्ञान होते ही बाह्यदृष्टि लुप्त हो जाती है और आत्माभिमुखता प्रकट हो जाती है । आत्मा में ही उसे सकल जगत् के ज्ञान का मूल प्राप्त होता है। जिस तरह विद्यार्थी दो चार या बीस पच्चीस सवाल हल कर ले इससे वह सभी सवाल हल नहीं कर सकता लेकिन जिस तरह विद्यार्थी ने सवाल की मूल रीति (चाबी) सीख ली है वह प्रत्येक सवाल हल कर सकता है इसी तरह जिसे आत्मज्ञान हो गया है वह मूलरीति प्राप्त कर लेता है । उसे अन्य ज्ञान की आवश्यकता नहीं रहती। अन्य ज्ञान उसके लिए सहज हो जाता है। यह विज्ञाता शब्द का रहस्य है।
-उपसंहार- . .. इस उद्देशक में सरोवर के समान निर्मल, उदार, गम्भीर और स्वरूपमग्न होने का कहा गया है। जिस आत्मा ने यह स्वरूपमग्नता प्राप्त कर ली है वह मृत्यु की परवाह नहीं करता। उसे अखण्ड विश्वास होता है कि जो मेरा है वह कोई नहीं छीन सकता और जो छीना जा सकता है वह मेरा नहीं है । इस अटल श्रद्वा के बिना सच्चा ज्ञान नहीं हो सकता और सच्चे ज्ञान के बिना शान्ति नहीं मिल सकती। सत्पुरुषों के अनुभव एवं वचन, आगम और अपनी विवेकबुद्धि इन तीनों के समन्वय से जो प्राप्त हो वही श्रद्धा है । ऐसी श्रद्धा की जागृति के विना कल्याण नहीं हो सकता। विकल्प श्रद्धा के शत्र हैं। जहाँ तक विकल्पों के भ्रम जाल में जीव भटकता है वहाँ तक श्रद्धा नहीं हो सकती। श्रद्धा के बिना सभी क्रियाएँ निष्प्राण हैं । शुद्ध श्रद्धा होने पर असम्यग भी सम्यग् रूप में परिणत होता है । जो बाह्य रूप से-जात है है वह अन्दर से सुप्त है । अर्थात्-जो बाह्य जगत् के विकल्पों में पड़ा हुआ है वह आध्यात्मिक दृष्टि से सोया हुआ है । अतएव अन्तर्जागृत बनना चाहिए । श्रद्धा जागृति का कारण है। शुद्ध श्रद्धालु-आत्मविश्वासी बनो।
इति पञ्चमोद्देशकः
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