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चतुर्थ अध्ययन चतुर्थांशक ]
[ ३३१
-प्रमाद से होने वाली हानियों का निर्देश करते हैं ताकि उन्हें समझ कर प्राणियों की प्रवृत्ति प्रमाद में न होकर अप्रमाद में हो । यहाँ प्रमाद से हानियाँ बताते हैं !
कई व्यक्ति प्रथम इन्द्रियादि के विषयों को रोक कर साधुवृत्ति अङ्गीकार कर लेते हैं परन्तु मोह का उदय होने के कारण पुनः विषयों में श्रासक्त हो जाते हैं। कहने का आशय यह है कि साधुवृत्ति स्वीकार करने मात्र से साध्य सिद्ध नहीं हो सकता। यह वृत्ति भी मोक्ष की सिद्धि के लिए एक साधन मात्र है । जो व्यक्ति संगम स्वीकार करने को ही सब कुछ कर चुकना मानकर वृत्तियों के प्रति सावधान रहते हैं वे धोखा खाते हैं। अनेक साधक कितने ही वर्षों तक संयम का पालन करके पुनः पतित हो जाते हैं । विषयों और पदार्थों के प्रति उनका मोह जागृत हो जाता है और वे इस तरह सावद्य अनुष्ठान करके संसार के बीजभूत कर्मों का आस्रव करते हैं। इससे यह तात्पर्य निकलता है कि संयम अङ्गीकार करके भी अपनी वृत्तियों पर पूरा काबू रखना चाहिए। ज्यों ही वृत्तियों को छूट मिलती है त्योंही ये अपने सहज स्वभाव से आत्मा को जड़ता की ओर खींच लेती हैं। अतएव वृत्तियों को ढीली नहीं छोड़नी चाहिए । वृत्तियों पर अंकुश रखने के लिए और उनके प्रति सतत सतर्क रहने के उद्देश्य से ही तपश्चर्या की जाती है । तपश्चर्या का यह हेतु नहीं भूल जाना चाहिए।
जो व्यक्ति एक बार संयम अङ्गीकार करके पुनः विषयों की ओर आकृष्ट होते हैं वे अपनी प्रतिज्ञा को भूल जाते हैं । प्रथम प्रव्रज्या अङ्गीकार करते समय यावज्जीवन सावद्य अनुष्ठान का त्याग करने की प्रतिज्ञा ली जाती है । उस प्रतिज्ञा को लेकर भी कई साधक वृत्तियों के आवेश में भान भूल जाते हैं और प्रतिज्ञा को विस्मृत कर देते हैं। ऐसे व्यक्ति कर्म के स्रोत इन्द्रियादि विषयों में अथवा मिध्यात्व, अविरति प्रमाद, कषाय और अशुभयोग में आसक्त हो जाते हैं। उन्हें सूत्रकार ने बाल, अव्यवच्छिन्नबंधन, अनभिकान्त संयोग और तीर्थकरों की आज्ञा से बहिर्भूत कहा है। संयम लेने पर भी जो विषय विकारों में
शून्य
सक्त होते हैं वे राग-द्वेष युक्त अन्तःकरण वाले होने से और मोहाभिभूत होने से बाल हैं, अज्ञानी हैं । बालक जिस तरह हिताहित का विवेक नहीं कर सकता उसी तरह वे व्यक्ति भी हिताहित के विवेक से न्य हैं। उनके ऐसे सावद्य अनुष्ठान से ऐसे कर्मों का आस्रव होता है कि वे कर्म सैकड़ों भवों में भी नहीं छूट सकते श्रतएव वे अव्यवच्छिन्नबन्धन होते हैं। ऐसे व्यक्ति बाह्यरूप से धन, धान्य, पुत्र, कलत्रादि संयोगों का त्याग करते हुए भी संयोगों के त्यागी नहीं हो सकते हैं। क्योंकि बाह्यरूप से त्यागने पर भी श्रान्तरिक वासना शेष रही हुई है। इसलिए आसक्त प्राणी किसी प्रकार के संयोग का त्यागी नहीं हो सकता। वह किसी भी प्रपञ्च से मुक्त नहीं हो सकता। ऐसा व्यक्ति इन्द्रियों के अनुकूल कार्य करने से मोहान्धकार में निमग्न रहता है अतएव श्रात्मा की ज्योति आवृत्त हो जाती है। ऐसा मोहान्ध प्राणी ज्ञानी है और वह तीर्थकरों की आज्ञा का आराधक नहीं होता है।
तीर्थकर की आज्ञा का अर्थ है - तीर्थकरोपदिष्ट नियमोपनियम को प्रांशिक या सर्वांश में पालने की प्राथमिक प्रतिज्ञा । मोहरूपी अन्धकार में वर्त्तमान होने से वह व्यक्ति आज्ञा का आराधक नहीं होता लेकिन विराधक होता है । अथवा 'आज्ञा' का अर्थ सम्यक्त्व । ऐसे अनभिक्रान्त संयोग आत्मा को समकित की प्राप्ति भी नहीं होती है। सूत्र में आया हुआ 'अस्ति' शब्द त्रिकाल विषयी है अतएव यह अर्थ हुआ कि भावान्धकार में रहे हुए प्राणी को न सम्यक्त्व पहिले था, न है और न भविष्यकाल में होगा । इसी बात को आगे स्पष्ट करते हैं ।
जस्स नत्थि पुरा, पच्छा मज्मे तस्स कुत्रो सिया ? से हु पन्ना मंते बुद्धे प्रारंभोवरए, सम्ममेयंति पासह, जेण बंधं, वह, घोरं परियावं च दारुणं
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