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पष्ठ अभ्ययन तृतीयोद्देशक ]
[४७७
जो अपरिपक्व साधक अभी सम्यग् विवेक के अभाव से इस रहस्य को नहीं समझ सके हैं और जो भी जागृत नहीं हुए है उन्हें जागृत और प्रौढ साधक द्विज-पोत (पक्षी के बच्चे ) के समान सावधानी पूर्वक समर्थ बनावें यह सूत्रकार फरमाते हैं । जिस प्रकार पक्षी गर्भ-प्रसव काल से लगाकर अण्ड रूप में और बाद में भिन्न २ अवस्थाओं में भी अपने बालक का सावधानी पूर्वक वहाँ तक पालन करते हैं जहाँ तक वह उड़ने में समर्थ नहीं हो जाता। इसी तरह प्राचार्य भी शिष्य को प्रव्रज्या देकर उसी समय से समाचारी के उपदेश और पठनपाठन द्वारा जब तक वह गीतार्थ न हो जाय तब तक उस की पालना करे । उसे शास्त्रीय ज्ञानद्वारा परिकर्मित बनाये ताकि वह भी संसार-समुद्र से पार हो सके।
अपरिकर्मित साधक साधना के विकट पंथ में कष्टों और परीषहों से व्याकुल हो जाते हैं। ऐसी अवस्था में प्रौढ साधकों का यह कर्तव्य है कि वे ऐसे साधकों की ग्लानि को दूर करे और उनमें नवचेतनता का सञ्चार करे। धर्मिष्ठ साधकों का जीवन परोपकार के लिए अर्पित हो जाता है। इनकी प्रत्येक क्रिया जगत् के हित के लिए ही होती है। राहभूलों के प्रति ये पिता के तुल्य वत्सलता रखते हैं। उन्हें प्रयत्न के साथ सन्मार्ग पर लाते हैं और उन्हें भी ऐसे समर्थ कर देते हैं कि वे भी संसार से पार हो जाते हैं। प्राचार्य को शिष्य के कल्याण के लिए प्रयत्न करना चाहिए और शिष्य को सदा प्राचार्य की प्राशा में ही रहना चाहिए। इस प्रकार के व्यवहार से दोनों की संयमयात्रा मोक्ष को प्राप्त करके निर्विघ्न पूर्ण हो जाती है।
... . -उपसंहार
इन्द्रियों और वृत्तियों पर विजय प्राप्त करने के लिए देहदमन की आवश्यकता है । देहदमन के लिए उपकरणों की लघुता होनी चाहिए । ज्यों-ज्यों उपकरण घटेंगे त्यों-त्यों उपाधि और पाप दूर हटेंगे। बाह्य अचेलकता और मुण्डन के साथ आभ्यन्तर अचेलकता और मुण्डन-हृदयशुद्धि आवश्यक है। जितना देहाध्यास छूटता है उतना ही जीवन नैसर्गिक बनता है। देहदमन का उद्देश्य कषायों को कुश करना है। ऐसा संयम ही मोक्ष का कारण होता है।
| AYYYYY . ... इति तृतीयोद्देशकः ..... ЛЛЛЛЛЛЛА
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