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तृतीय अध्ययन तृतीयोद्देशक ]
[ २५५
. भावार्थ-जो कर्मों को दूर करने वाला है वह मोक्ष को प्राप्त करने वाला है और जो मोक्ष प्राप्त करने वाला है, वह कर्मों को दूर करने वाला है ऐसा समझना चाहिए ।
विवेचन-पूर्ववर्ती सूत्र में आत्म-शक्ति का भान कराया गया है। जीवात्मा को यह विश्वास और आश्वासन दिया गया है कि हे जीवात्मन् ! तू अनन्त शक्ति का केन्द्र है। ये कर्म तेरे ही बनाये हुए हैं और तू ही इनसे भयभीत होता है ? उठ, पुरुषार्थ कर और अपने ही उत्पन्न किए हुए कर्मों का स्वयं ही विनाश कर । आत्मा से ही आत्मा का उद्धार कर।
यह प्रेरक उपदेश देने के बाद सूत्रकार यह फरमाते हैं कि जो पुरुषार्थ-द्वारा कमों को दूर करता है वही मोक्ष का अधिकारी है और जो मोक्ष का अधिकारी होता है वही कर्मों को दूर करता है। इस प्रकार कर्म-विनाश और मोक्ष प्राप्ति का हेतुहेतुमद्भाव प्रदर्शित किया है। जो कर्मों का और आस्रवों का विनाश करता है वही मोक्षमार्ग का अधिकारी है। जिसका लक्ष्य मोक्ष का होता है और जो तदनुसार प्रवृत्ति करता है वही कर्मों को दूर कर सकता है । आत्मा ही कर्म-बन्धन का कारण है और आत्मा ही मोक्ष का कारण है।
. उपर्युक्त कथन से सूत्रकार ने आत्मा का कर्तृत्व और स्वातंत्र्य प्रतिपादन किया है। सांख्य-दर्शन ने आत्मा को अकर्ता माना है और साथ ही कर्म-फल का भोक्ता माना है । जैसा कि कहा है:-...
अकर्ता निर्गुणो भोक्ताऽऽत्मा कापिनदर्शने । :-- यह सांख्यों का कथन युक्ति-संगत नहीं है क्योंकि अगर प्रात्मा को नित्य और सर्वव्यापी कहकर उसे सर्वथा अकर्ता-निष्क्रिय माना जायगा तो वह सदा एकरूप रहेगा ऐसी अवस्था में चतुर्गति-रूप संसार और मोक्ष कैसे सिद्ध होगा ? इसके अतिरिक्त आत्मा यदि कर्मों का कर्ता नहीं है तो अकृत कमों का फल कैसे भोग सकता है? अगर अकृत कर्मों का फल भोगता है तो ऐसे भोग की कदापि समाप्ति नहीं होगी। इसी प्रकार प्रात्मा को अक्रिय मानने से गतियाँ भी सिद्ध नहीं हो सकती हैं। कहा भी है:
को वेएइ अकयं, कयनासो पंचहा गई नत्थि ।
देवमणुस्सगयागइजाइसरणाइयाणं च ॥ आत्मा अगर कर्म नहीं करता है तो अकृत कर्म का फल कैसे भोग सकता है ? निष्क्रिय होने से आत्मा कर्म का फल नहीं भोग सकता अतः कृतकर्म निष्फल हो जायेंगे। प्रात्मा को कूटस्थ नित्य मानने पर पाँच प्रकार की गतियाँ सिद्ध नहीं हो सकती हैं। आत्मा को सर्वव्यापी मानने पर देव-मनुष्यादि रातियों में आवागमन नहीं हो सकता तथा इसे नित्य मानने के कारण विस्मरण भी नहीं हो सकता। अतः जातिस्मरणादि ज्ञान का अभाव हो जायगा। क्योंकि विस्मरण होने पर ही स्मरण हो सकता है।
अतएव श्रात्मा को कर्ता मानना चाहिए। आत्मा को सर्वथा अक्रिय मानना और साथ ही भोक्ता मानना आश्चर्यजनक है । “भोगना" भी एक क्रिया ही है, जो अकर्ता है वह भोग-क्रिया का कर्ता नहीं हो सकता। कर्ता और हो और भोक्ता और हो यह तो असंगत बात है। अतएव आत्मा ही कर्ता है और वही स्वयं भोक्ता है।
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