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षष्ठ अध्ययन प्रथमोरेशक ]
[HAN नहीं हो जाता है। उसे अनेक निमित्तों द्वारा पोषण मिला करता है। जहाँ तक सद्ज्ञान और संयम के दृढ़ संस्कार चित्त पर स्थापित नहीं हो जाते हैं वहाँ तक जीवात्मा को उसके पूर्व संस्कार खींचते रहते हैं। साधक यदि जरा भी असावधान और बेखबर रहते हैं तो वे पूर्व संस्कारों से खिंच कर गिर पड़ते हैं और बुरी चोट खाते हैं। इसलिए प्रति क्षण जागृत रहना चाहिए । पूर्वसंस्कारों को वेग न मिले इसके लिए पूरी चौकी करनी चाहिए । प्रत्येक क्रिया विवेकबुद्धि-आत्मभान को जागृत रखकर करनी चाहिए। ऐसा करने से बहुत से पतन के द्वारों से बचा जा सकता है। अपने कार्यों पर और वृत्तियों पर सतत दृष्टि रखने से पतन का अवसर ही नहीं प्राप्त होता है । अब सूत्रकार एक दूसरा उदाहरण बताते हैं:
जिस प्रकार वृक्ष शीत, आतप, वर्षा आदि के अनेक कष्ट उठाते हैं लेकिन वे अपने स्थान को नहीं छोड़ सकते हैं। छोड़ने की इच्छा होते हुए भी छोड़ने में असमर्थ होते हैं । इसी प्रकार संसारी जीव संसार में अनेक प्रकार के शारीरिक और मानसिक कष्ट उठाते हैं लेकिन वे धर्माचरण के योग्य होते हुए भी इन्द्रियों के विषयों में आसक्त होकर अपना गृहवास नहीं त्याग सकते हैं। वे इन्द्रियों और स्वजनों में इतने गृद्ध होते हैं कि वे भयंकर से भयंकर दुख उठाते हैं लेकिन उनका त्याग नहीं करते हैं। वे इस प्रकार की आसक्ति का दुष्परिणाम क्या होगा इस बात का विचार नहीं करते हैं। इस प्रकार की प्रासक्ति का दुष्परिणाम सामने उपस्थित होता है तब वे रुदन करते हैं-विलाप करते हैं-हा तात ! हा माता ! हा दुर्दैव ! यह अचिन्तित, घोर दुख मुझे क्यों भोगना पड़ा है ! अथवा विषयों में आसक्त होकर कर्मों का उपार्जन करके जीव नरक की वेदनाओं का अनुभव करते हुए विलाप करते हैं। इतना विलाप करते हुए भी वह अज्ञानी यह नहीं जानता कि इस दुख का कारण मैं स्वयं हूँ। मेरे ही दुष्कर्मों का यह परिणाम है। यह निदान नहीं कर सकने से वे प्राणी दुख के उपादान कारण कमों से छूट नहीं सकते । इस प्रकार पूर्वग्रहों की तीव्रता के कारण साधक आसक्ति से दूर नहीं रह सकते । इसका परिणाम भयंकर पतन है।
साधना के मार्ग में श्रा जाने के बाद भी यह पूर्वग्रह पीछा नहीं छोड़ते। ये ग्राह के समान आत्मा को ग्रसित करने के लिए मुँह खोले खड़े रहते हैं। इसलिए सुधर्मास्वामी फरमाते हैं कि साधक को पहिले पूर्वग्रह का त्याग करना चाहिए । पूर्वग्रह का अर्थ है पहिले की दृष्टि की पकड़ । यह पकड़ अनेक तरह की हो सकती है। कुल परम्परा की पकड़, मान्यता की पकड़, व्यवहार की पकड़, सम्प्रदाय की पकड़ इत्यादि इसके अनेक रूप हैं। सत्रकार ने वक्ष की उपमा देकर बताया है कि जैसे वृक्ष दख से घबरा कर स्थान
ना चाहता है तो भी वह नहीं छोड सकता. इसी तरह आसक्ति के दखद परिणाम से घबराकर साधक उसे छोड़ने की इच्छा करता है लेकिन वैसा प्रसंग आने पर पनः वैसी ही गलती करने लगता है। इस प्रकार साधक साधना के मार्ग में जुड़ जाने के बाद भी पूर्वग्रहों के कारण व्यक्तिगत और समाजगत हानि कर बैठता है। साम्प्रदायिक पकड के कारण समाज का बड़ा भारी अहित हो रहा है। साम्प्रदायिक पकड जनकल्याण के सन्दर बरखे के नीचे रहने से जनता को आकर्षित कर सकती है और उसे गलत मार्ग पर ले जा सकती है । पूर्वग्रह के विषय में यहाँ इतना कहा गया है इसका कारण यह है कि ये संयम की साधना में विशेष रूप से बाधा डालते हैं । अनुभवियों ने इसका अनुभव किया है इसलिए वे इससे बचने के लिए और सतत सावधान रहने के लिए सूचित करते हैं।
अह पास तेहिं कुलेहिं श्रायत्ताए जाया-गंडी हवा कोढी रायंसी अवमारियं । काणियं झिमियं चेव कुणियं खुजियं तहा। उदरिं च पास
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