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चतुर्थ अध्ययन द्वितीयोदेशक ]
[३०१ ज्ञानी पुरुष इस प्रकार से उपदेश फरमाते हैं कि जो अार्तध्यान से व्याकुल हैं और विषयादि प्रमादों से प्रमत्त हैं वे भी धर्माचरण के लिए उद्यत हो जाते हैं । ज्ञानी पुरुषों के वचनामृत में वह शक्ति है जो मिथ्यात्व और प्रमादादि रोगों को क्षण में शान्त कर देती है । चिलातिपुत्र दुखों से संतप्त हो रहा था। उसने भी प्रभु का उपदेश सुना और वह संयम में सावधान हुआ । इसी प्रकार शालिभद्र अपने स्वर्गीय विषयसुखों में निमग्न थे। वे विषयादि से प्रमत्त थे। संसार के सुखोपभोग के समस्त साधनों के विद्यमान होते हुए भी वे धर्माचरण के प्रति उद्यत हुए । यह प्रभु को देशना का ही परिणाम है। प्रभु के प्रवचन में राजा और रंक का भेद नहीं है। वे सभी को समान भाव से निरपेक्ष बुद्धि से उपदेश फरमाते हैं। प्रभु की दिव्य देशना के द्वारा भव्यजनों के मिथ्यात्वादि रोग क्षीण हो जाते हैं । प्रभु की वाणी समस्त पापों को दूर करने वाली है। उसका आश्रय लेकर अनन्त जीव संसार-समुद्र के पारगामी हुए और होवेंगे।
यहाँ यह आशंका की जा सकती है कि प्रभु की देशना से पाप दूर हो जाते हैं; प्रभु अनन्त शक्तिसम्पन्न है और सब जीवों के हितकारी हैं तो उनकी देशना से अभव्य जीव प्रतिबोध क्यों नहीं पाते ? प्रभु अपनी शक्ति और वाणीद्वारा उन्हें प्रतिबोध नहीं दे सकते तो क्या यह उनका असामर्थ्य नहीं है ? इसका समाधान यह है कि तीर्थंकरों की देशना द्वारा अभव्य जीव प्रतिबोध नहीं पाते हैं तो यह उपदेशक की असमर्थता नहीं है बल्कि उन जीवों की तथारूप परिणति ही उसके लिए दोषी है। सूर्य अपने स्वर्णमय प्रकाश को अभेद रूप से वितरण करता है लेकिन अगर उल्लू उस प्रकाश का लाभ नहीं ले सकता तो यह सूर्य का दोष नहीं कहा जा सकता। इसी तरह प्रभु निरपेक्ष होकर देशना का दान करते हैं अगर अभव्य जीव प्रतिबोध नहीं पाते तो यह प्रभु का असामर्थ्य नहीं है । कहा है:
सद्धर्मबीजवपनानघकौशलस्य, यल्लोकवान्धव ! तवापि खिलान्यभूवन् ।
तन्नाद्भुतं खगकुलेष्विह तामसेषु सूर्याशवो मधुकरीचरणावदाताः ॥ अर्थात् हे सर्व-जग-हितकारी प्रभो ! श्राप सद्धर्म रूप बीज के बोने में अद्वितीय कुशल हैं तदपि अभव्यात्माओं के लिए वह कारगर नहीं हो सकता है तो यह कोई अद्भुत बात नहीं है क्योंकि तमोविहारी उल्लू के लिए सूर्य की सुनहरी किरणें भी भ्रमरी के चरणों के समान काली ही होती है।
इस प्रकार ज्ञानी पुरुषों के प्रवचन में पतितों को पावन करने की, अधमों का उद्धार करने की, पतितों को ऊँचा उठाने की शक्ति रही हुई है। इस प्रवचन का आश्रय लेने से अतिघोर पापी भी मुक्ति के अधिकारी हुए हैं । जब पापी, आतध्यानी और विषयसुखों में लीन रहने वाले व्यक्ति भी प्रभु का उपदेश सुनकर धर्माचरण के प्रति उद्यत हुए तो हे शिष्यो ! तुम्हें धर्माचरण के प्रति सतत जागृत रहना चाहिए। ज्ञानी पुरुषों ने विकास का मार्ग बता दिया है। आवश्यकता है सिर्फ उस पर गमन करने की । जो साधक प्रभु के द्वारा उपदिष्ट मार्ग पर बराबर चलता है वह शीघ्र मुक्त हो जाता है।
श्रीसुधर्मास्वामी अपने प्रिय शिष्य जम्बूस्वामी से कहते हैं कि यह जो मैंने कथन किया है वह अनुभव पूर्ण सत्य है । यह यथार्थ तत्त्व है । अतः दुर्लभ सम्यक्त्व को पाकर प्रमाद नहीं करना चाहिए।
तीर्थक्कर देवों का सत्य उपदेश होते हुए भी अनादिकालीन मिथ्यात्व की गाढ़ निद्रा से सुषुप्त प्राणी उस उपदेश पर ध्यान नहीं देते और संसार के प्रपञ्चों में ही आजीवन फसे रहते हैं। यह बात तो निश्चित है कि प्रत्येक संसारी प्राणी मृत्यु के कराल गाल में पड़ा हुआ है। तदपि मोहासक्त प्राणी इसकी
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