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[ श्राचाराङ्ग-सूत्रम्
सकती है लेकिन इसके लिए अपने बलवीर्य को गुप्त न रखना चाहिए। मुमुचु साधक अगर अपने बलवीर्य at faपाये बिना मोक्ष मार्ग पर चलता रहता है तो वह भी साध्य सिद्ध कर सकता है ।
वीर्य को छिपाने का अर्थ है अपनी शक्ति को प्रतिहत करके अन्दर ही अन्दर रोक रखना, उसे प्रकट नहीं करना । प्राणी मात्र में अनन्त शक्ति भरी है । परन्तु यह प्राणी उस शक्ति का अनुभव ही नहीं करता है और वह अपने आपको कमजोर मानकर संयोगों और निमित्तों के अधीन हो जाता है। जब तक प्राणी के विवेक-चतु नहीं खुलते तब तक वह स्वतंत्र रूप से कोई पुरुषार्थ नहीं करता। वह तो उसे जैसे संयोग एवं निमित्त मिलते हैं उन्हीं में जीता है। वह यह नहीं समझता कि निमित्त एवं संयोगों का सर्जन करना मेरे हाथ में है । यह वीर्योल्लास तब तक नहीं प्रकट होता जब तक विचारशक्ति एवं श्रात्मनिर्भरता न जावें । प्राणी अपनी मूढ़ता एवं क्रियाशून्यता के कारण अपने वीर्य को कुष्ठित करता है । लेकिन सूत्रकार फरमाते है कि शक्ति को कु ण्ठत करना - वीर्य का गोपन करना हानिकारक है । अपनी शक्ति का अनुभव करके पूरी शक्ति से अपने श्रमीकृत मार्ग पर दृढ़ रहना चाहिए ।
यह हो सकता है कि वृत्ति की शुद्धता या अशुद्धता के कारण वीर्य का सदुपयोग एवं दुरुपयोग हो । लेकिन इसकी अपेक्षा शक्ति को प्रकट नहीं करना अधिक हानिकारक है । जो साधक शक्ति का उपयोग करते हैं वे चाहे किसी समय उसका दुरुपयोग भी करते हों तो भी निमित्त शुद्ध मिलने पर वे उसका सदुपयोग कर सकते हैं। शक्ति का दुरुपयोग करने वाले प्रदेशी राजा, दृढ़प्रहारी और चिल्लाती, शुद्ध निमित्त के मिलते ही अपनी शक्ति का सदुपयोग करते हुए देखे गए हैं। इसीलिए कहा गया है कि " जे कम्मे सूरा ते धम्मे सूरा" । शक्ति को छिपाकर रखना - उसका उपयोग न करना - शक्ति को खोना है, निर्बल होना है और शक्ति को वासी करना है । शक्ति को प्रकट करना चेतना है- उत्साह है - स्फूर्ति है । अतएव सूत्रकार फरमाते हैं कि साधको ! मेरे दृष्टान्त को सन्मुख रखो और अपनी शक्ति का सदुपयोग करते हुए आगे बढ़ते चलो। तुम अवश्य ही अपने साध्य पर पहुँचोगे ।
तीर्थंकर रूपित मार्ग, मोक्ष का सीधा और सरल मार्ग है। इस पर चलने वाला साधक शीघ्र मोक्ष प्राप्त करता है । तीर्थंकरों ने अपनी कठिन साधना और तपश्चर्या के द्वारा जो कुछ प्राप्त किया है वह उन्होंने संसार को वितरण किया है। उनका यह उदार आशय है कि जिस मार्ग पर चल कर हमने साध्य पाया है उसी मार्ग पर चल कर अन्य प्राणी भी मोक्ष-साध्य प्राप्त करें इसीलिये वे उपदेश प्रदान करते हैं। ऐसे परम कारुणिक, सकल प्राणियों के हितोपदेष्टा प्रभु महावीर ने यह फरमाया है कि जो साधक विवेक एवं विचार से युक्त होकर पदार्थों का त्याग कर अपरिग्रही बनते हैं और समतायोग की अराधना करते हैं। शीघ्र ही निर्वाण प्राप्त कर सकते हैं ।
जे पुट्ठाई नो पच्छानिवाई, जे पुव्वुट्ठाई पच्छानिवाई, जे नो पुव्वुट्ठायी नो पच्छानिवाई, सेsवि तारिसिए सिया, जे परिन्नाय लोगमन्नेसयंति, एयं नियाय मुणिणा पवेइयं ।
संस्कृतच्छाया— यः पूर्वोत्थायी नो पश्चान्निपाती, यः पूर्वोत्थायी पश्चानिपाती, यो नो पूर्वोत्थायी नो पश्चान्निपाती । सोऽपि तादृशः स्यात्, ये परिज्ञाय लोकमन्वेषयंति, एतत् ज्ञात्वा मुनिना प्रवोदितम् ।
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