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[आचाराङ्ग-सूत्रम् जीवियस्स जीवन के लिए। परिवंदण-माणण-पूयणाए प्रशंसा, मान और पूजा प्राप्त करने के लिए । जाइमरण मोयणाए जन्म-मरण से छूटने के लिए। दुक्खपडिघायहेऊ-दुःख निवारण के लिए। से वह जीव । सयमेव स्वयं ही। पुढविसत्थं पृथ्वीकाय शस्त्र का । समारम्भेड्= प्रारम्भ करता है । अण्णेहिं दूसरों के द्वारा । पुढविसत्यं पृथ्वीकाय शस्त्र का । समारंभावेइ= आरम्भ करवाता है । अएणे वा पुढविसत्थं समारंभंते पृथ्वीकाय शस्त्र का समारंभ करते हुए अन्य को। समणुजाणइ अच्छा समझता है। तं से यह पृथ्वीकाय की हिंसा उसके लिये। अहियाए अहित करने वाली । तं से यह हिंसा उसके लिए। अबोहियाए अज्ञान बढ़ाने वाली होती है। - भावार्थ-इस पृथ्वीकाय के समारम्भ के विषय में भगवान् महावीर विवेक कराते हुए फरमाते हैं कि प्राणी जीवन-निर्वाह के लिए, कीर्ति प्राप्त करने के लिए, मानपूजा प्रप्त करने के लिए, अपनी भ्रमात्मक बुद्धि से माने हुए जन्म-मरण से छूटने के उपाय के लिए तथा दुःख निवारण करने के लिए स्वय पृथ्वीकाय के जीवों की हिंसा करते हैं, दूसरों से करवाते हैं और हिंसा करते हुए अन्य को अच्छा समझते हैं परन्तु यह हिंसा उनके अकल्याण के लिए, तथा अबोध ( मिथ्यात्व ) के लिए है अर्थात् यह हिंसा अश्रेय और मिथ्यात्व की जननी बना जाती है ।
विवेचन-भगवान महावीर के समय में तथा वर्तमान समय में भी ऐसे कितने ही साधु थे और हैं जो अपने आपको साधु कहते हुए भी सावध कार्यों में स्वयं प्रवृत्ति करते, करवाते और उन प्रवृत्तियों में रसपूर्वक भाग लेते तथा धर्मनिमित्त हिंसा, हिंसा ही नहीं है (वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति) इस प्रकार प्रजा को उपदेश देते थे परन्तु भगवान् महावीर ने इसका प्रचण्ड विरोध किया था। इस सूत्र में भगवान् यह स्पष्ट फरमाते हैं कि 'जाइमरण मोयण' केलिये की गई हिंसा भीअकल्याण करने वाली एवं मिथ्यात्व
को बढ़ाने वाली है। हिंसामात्र हिंसा और पापरूप है। जो अपने आपको ज्यादा धर्मिष्ट कहते हैं उनपर ' उतना ही अधिक अहिंसक होने का उत्तरदायित्व है अतएव उनका जीवन अत्यन्त संयमी और छोटे से छोटे जीव के प्रति भी प्रतिक्षण यतनाशील होना चाहिये ।
से तं संबुज्झमाणे श्रायाणीयं समुट्ठाय, सोचा खलु भगवश्रो अणगाराणं इहमेगेसि णायं भवति–एस खलु गंथे, एस खलु मोहे, एस खलु मारे, एस खलु णरए इच्चत्यं गढिए लोए जमिणं विरूवरूवेहिं सत्येहिं पुढविकम्मसमारंभेणं पुढविसत्यं समारंभपाणे अण्णे प्रणेगरूवे पाणे विहिंसइ (१५)
___ संस्कृतच्छाया-स तं सम्बुध्यमान: आदानीय समुत्थाय श्रुत्वा खलु भगवतोऽनगाराणामिहैकेषां ज्ञातं भवति, एष खलु ग्रन्थः, एष खल मोहः, एष खलु मारः, एस खलु नरकः । इत्येवमर्थ गृद्धो लोकः यदिमं विरूपरूपैः शस्त्रैः पृथिवीकर्मसमारम्भेण पृथिवींशस्त्रं समारभमाणाः अन्याननेकरूपान् प्राणान् हिनस्ति ।
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