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[ आचाराङ्ग-सूत्रम्
घर में प्रवेश करता है, वहाँ सभी प्रकार की सामग्री विद्यमान है, दान का सुअवसर है तदपि यह हो सकता है कि गृहस्थ साधु को आहारादि न दे ऐसे प्रसंग पर साधु का यह कर्त्तव्य है कि वह उस पर क्रोध न करे और यह विचार करे कि गृहस्थ की चीज़ है उसकी इच्छा हो तोदे, नहीं हो तो न दे । मुझे उस पर क्रोध क्यों करना चाहिए ? दूसरा विचार यह करना चाहिए कि मेरे लाभान्तराय का उदय है जिससे प्राप्ति नहीं होती है । चलो, सहज ही तपश्चर्या का प्रसंग प्राप्त हुआ ।मुझे इससे क्या हानि हुई ? ऐसा विचार कर शान्त भाव से वहाँ से शीघ्र लौट जाना चाहिए । दाता अगर थोड़ी चीज़ दे तो भी उसकी निंदा नहीं करनी चाहिए अथवा साफ इन्कार कर दे तो भी मुनि का यह कर्त्तव्य है कि वह गृहस्थ को कठोर वचन न कहे। ऐसा न बोले कि "धिक्कार है तुम्हारा गृहस्थावास, तुम्हारी उदारता देखली, तुम्हारा अनुभव कर लिया, तुम्हारा नाममात्र ही अच्छा है, नाम बड़ा और दर्शन खोटा इत्यादि।" लाभ न होने पर भी शान्तभाव से शीघ्र घर से निकल जाना चाहिए। अगर दाता दे तो उसकी तारीफ करना यह भी मुनि-धर्म के विपरीत है । दीन-बुद्धि से भाट की तरह दाता की स्तुति करना अनुचित है। अतः लाभ होने पर भी शीघ्र वहाँ से लौट जाना चाहिए।
हे शिष्य ! अनन्त भवों के उपार्जित पुण्यों के प्रताप से यह संयमी-जीवन प्राप्त हुआ है अतः अस्खलित रूप से इस मौनीन्द्र-धर्म का पालन करके कल्याण की साधना करनी चाहिए।
-उपसंहारइस उद्देशक में यह प्ररूपित किया है कि भोग किंपाक फल के समान मनोहर और चित्ताकर्षक हैं परन्तु इनका परिणाम अत्यन्त दारूण है। अतः सुखाभिलाषी प्राणियों को भोगों से निवृत्ति करनी चाहिए। साथ ही इस उद्देशक में भोग और उपयोग का भेद बताया गया है । वस्तुओं का भोग भी किया जाता है और उपयोग भी। भोग करना पतन का कारण है और उपयोग करना विकास का हेतु हैं । अतः प्राणीमात्र का कर्तव्य है कि पदार्थों का भोग न करके उनका सम्यग् उपयोग करना सीखे। “पद्मपत्रमिवाम्भसा" के न्याय से आसक्ति का त्याग कर अनासक्त जीवन व्यतीत करने में ही सुख रहा हुआ है।
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इति चतुर्थोद्देशकः
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